21 अप्रैल, 2019

हार में भी जीत का सुकून




खरगोश बहुत तेज भागता है,
एक बार गुमान लिए हार गया,
पर भागता तो वही तेज है !
बात कहानी की गहरी है,
लेकिन हर जगह यही कहानी
साकार नहीं होती ।
होती भी हो,
बावजूद इसके
मैं कछुए की चाल में चलती हूँ,
हारना बेहतर है
या जीतना
- इस पर मनन करती हूँ ।
जीतकर सुकून हासिल होगा
या हारकर अपना "स्व" सुरक्षित लगेगा,
ये सोचती हूँ ।
जब लोग धक्का देकर आगे बढ़ रहे होते हैं,
मैं स्थिर हो जाती हूँ,
यह सोचकर
कि या तो भीड़ मुझे भी धक्का देती
आगे कर देगी
या फिर एक निर्धारित समय
मुझे वहाँ ले जाएगा,
जिसके सपने मैं हमेशा से देखती रही हूँ,
आज भी सपनों में कोई दीमक नहीं लगा है,
मेरे पास और कुछ हो न हो,
उम्मीद और विश्वास अपार है,
मैं आज भी नहीं मानती
कि जो जीता वही सिकन्दर !
वह सिकन्दर हो सकता है,
लेकिन अपने मन में
कहीं न कहीं अधूरा होता है,
यही अधूरापन
उसे कभी खरगोश बनाता है,
कभी ख़िलजी,
ईर्ष्या, घमंड के बंधन से
वह मृत्यु तक नहीं निकल पाता ।
खुद को श्रेष्ठ समझते समझते,
वह अकेला हो जाता है,
अपना मैं भी साथ नहीं होता
ऐसे में उसके जैसा ग़रीब
और हताश व्यक्ति ,
कोई नहीं होता !!
मैं हारकर भी नहीं हारी,
रोकर भी कभी मुरझाई नहीं,
विश्वास के कंधे पर,
नींद की दवा लेकर ही सही
मुझे नींद आ जाती है
और आनेवाला कल
नए विकल्पों से भरा होता है ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. यकीनन आने वाला कल नए विकल्पों से भरा होगा ही
    बहुत सुंदर भाव

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  2. सारे कछुए अगर खरगोश हो चुके हों
    उस समय कछुआ हो लेना समझदारी है।

    सुन्दर रचना।

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  3. बहुत खूब... ,उमींद और विश्वास नहीं टूटनी चाहिए ,सादर

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  4. दीदी, बहुत ही प्रेरक कविता. बल्कि एक ऐसा संदेश जो मैंने जीवन भर अनुभव किया है और जिया है. फिर भी मुझे अपने कछुएपन पर कोई अफसोस नहीं. ऐसा सिकंदर होकर भी क्या लाभ, जो क़ैदी पोरस के उत्तर से निरुत्तर हो गया.

    बहुत खूब दीदी!

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  5. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.4.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3313 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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  6. प्रेरक और सराहनीय सृजन..👌

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  7. बहुत ही सुन्दर आदरणीया दी जी
    सादर

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