13 दिसंबर, 2019

तुम सूरज ही बनना




बेटी,
यदि तुम सूरज बनोगी
तो तुम्हारे तेज को लोग बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे,
वे ज़रूरत भर धूप लेकर,
तुम्हारे अस्त होने की प्रतीक्षा करेंगे ।
सुबह से शाम तक
एक ज़रूरत हो तुम ।
जागरण का गीत हो तुम,
दिनचर्या का आरम्भ हो तुम,
गोधूलि का सौंदर्य हो तुम,
घर लौटने का संदेश हो तुम ...
फिर भी,
उन्हें तुम्हारे अस्त होने का इंतज़ार रहता है,
ताकि वे पार्टियां कर सकें,
आराम कर सकें,
गहरी नींद में चिंता मुक्त हो सकें ...
पर,
तुम सूरज बनकर,
नीड़ में सिहरन पैदा करती हो,
उड़ने का संदेश देती हो,
प्रकृति में ऊर्जा बन घूमती हो
लेकिन कहा न,
सूरज मत बनो,
लोगों के द्वारा अस्त होने की चाह के आगे
घटाओं की तरह बरसोगी,
और लोग उसमें भी अपना फायदा देखेंगे,
नुकसान होने पर तुम्हें दोष देंगे !
बेटी,
तुम सिर्फ संहार करो,
फिर मूर्ति बन जाओ,
सजो,संवरो,
विसर्जित हो जाओ
आह्वान का इंतज़ार करो,
खुद आने,
भ्रमण करने,
धन धान्य का सुख देने की मत सोचो ।
बेटी,
जलकर,मरकर तुम्हारी आत्मा
जहाँ, जिस हाल में हो,
मेरी इस बात को गहराई से सोचो,
मैं भी बेटी हूँ,
सूरज बनने की चाह में झुलसी हूँ,
अपनी पहचान को बनाये रखने की खातिर
पूरब से पच्छिम तक ही नहीं दौड़ी हूँ,
उत्तर और दक्षिण को भी समेटा है ।
देखा है दुर्गा बनकर,
संहार के लिए अपनी ही मूर्ति का आह्वान करके,
आसपास सबकुछ निर्विकार रहता है ... !
यदि इस निर्विकारता के आगे,
तुम स्वयं अपना ढाल बनने का सामर्थ्य रख सकती हो,
तो ... सूरज बनना ।
क्योंकि असली सच है,
कि, सूरज कभी अस्त नहीं होता,
अस्त होने का भ्रम देकर
कहीं और उदित होता है ।
तो बेटी,
तुम सूरज ही बनना और जो राह रोके,
उसे जलाकर राख कर देना ।।

05 दिसंबर, 2019

हादसे स्तब्ध हैं




हादसे स्तब्ध हैं, ... हमने ऐसा तो नहीं चाहा था !
घर-घर दहशत में है,
एक एक सांस में रुकावट सी है,
दबे स्वर,ऊंचे स्वर में दादी,नानी कह रही हैं,
"अच्छा था जो ड्योढ़ी के अंदर ही 
हमारी दुनिया थी"
नई पीढ़ी आवेश में पूछ रही,
"क्या सुरक्षित थी?"
बुदबुदा रही है पुरानी पीढ़ी,
"ना, सुरक्षित तो नहीं थे, लेकिन ...,
ये तो गिद्धों के बीच घिर गए तुम सब !
पैरों पर खड़े होने की चुनौती क्या मिली,
वक़्त ही फिसल गया सबके आगे ।
मुँह अंधेरे ही तुम सब निकलते हो,
रात गए तक आते हो, 
इसका तो कोई प्रबन्ध हो सकता न ?
पहले भी दस से पांच तक काम होते थे,
स्कूल चलता था,
घरों में पार्टियां भी होती थीं,
पर एक वक़्त मुकर्रर था ।
अब तो कोई निश्चित समय ही नहीं रहा ।।
महानगरों में तो सड़कें रात भर जागती ही थीं,
अब तो गली,कस्बे भी जागते हैं,
जाने कैसी होड़ है ये !"
"सब करते हैं, 
सब आते हैं असुरक्षित"
"वही तो !
सबसे पहले इसे दुरुस्त करना होगा,
बिना नम्बर कोई गाड़ी बाहर न निकले,
कहीं कोई देर तक झुंड में बैठा हो,
तो लाइसेंस की तरह 
इस वजह की भी पूछताछ हो,
नाम,तस्वीर ले लिया जाए ।
जिस तरह आतंकी गतिविधियों पर नज़र रखते हैं,
नज़र रखने के उपाय होते हैं,
वैसे ही संदिग्ध टोली पर भी नज़र हो ।"

अन्यथा -  किसी आक्रोश का कोई अर्थ नहीं ।

मौन साक्षी मैं !




मैं वृक्ष,
वर्षों से खड़ा हूँ
जाने कितने मौसम देखे हैं मैंने,
न जाने कितने अनकहे दृश्यों का,
मौन साक्षी हूँ मैं !
पंछियों का रुदन सुना है,
बारिश में अपनी पत्तियों का नृत्य देखा है,
आकाश से मेरी अच्छी दोस्ती रही है,
क्योंकि धरती से जुड़ा रहा हूँ मैं ।
आज मैंने अपने शरीर से वस्त्ररूपी पत्तियों को गिरा दिया है,
इसलिए नहीं कि अब मैं मौसम के थपेड़े नहीं झेल सकता !
बल्कि इसलिए, कि -
मैं अपनी जगह नहीं बदल सकता !
और इस वजह से
जाने कितने आतताई,
मेरी छाया में,
अपनी कुटिलता का बखान करते रहे हैं ।
सुनी है मैंने चीखें,
उन लड़कियों की,
जिन्होंने मेरी डाली पर डाला था झूला,
सावन के गीत गाये थे !!!
आँधी की तरह मैं गरजता रहा,
पर कुछ नहीं कर सका
अंततः
भीतर ही भीतर शुष्क होता गया हूँ,
पत्तियों को भेज दिया है धरती पर,
ताकि उनकी आत्मा को एक स्पर्श मिल जाये
और मुझे ठूंठ समझ,
कोई मेरे निकट न आये ...

28 नवंबर, 2019

फिर दोहराया जाए




पहले पूरे घर में
ढेर सारे कैलेंडर टँगे होते थे ।
भगवान जी के बड़े बड़े कैलेंडर,
हीरो हीरोइन के,
प्राकृतिक दृश्य वाले, ...
साइड टेबल पर छोटा सा कैलेंडर
रईसी रहन सहन की तरह
गिने चुने घरों में ही होते थे
फ्रिज और रेडियोग्राम की तरह !
तब कैलेंडर मांग भी लिए जाते थे,
नहीं मिलते तो ...चुरा भी लिए जाते थे
अब बहुत कम कैलेंडर देखने को मिलते हैं,
नहीं के बराबर ।
नए साल की डायरी का भी एक खास नशा था !
कुछ लिखते हुए
एक अलग सी दुनिया का एहसास होता,
दूसरे की डायरी चुराकर पढ़ने की
कोशिश होती,
फिर बिना कुछ सोचे समझे
उसकी व्याख्या होती
लिखनेवाले को आड़े हाथ लिया जाता ।
ऐसी स्थिति में,
लिखनेवाला भी लिखने से पहले
सौ बार नहीं,
तो दस बार जरूर सोचता
और छुपाने के लिए
ड्राइंग रूम के सोफे का गद्दा,
पलंग के गद्दे के बीच की जगह,
आलमारी के पीछे की जगह ढूंढी जाती
...चलो भाई, ज़रा रिवाइंड होकर टहलते हैं
कम से कम वहाँ तक
जहाँ हम जीभ दिखाकर
जीत जाते थे,
ठेंगा दिखाकर
भड़ास बची रही तो
दांत से हथेली या कलाई काट लेते थे
फिर भी दोस्त बने रहते थे
बीते शाम की कट्टिस
अगली शाम तक दोस्ती में बदल जाती थी तो क्यों न फिर से
कुछ कैलेंडर खरीदे जाएं
कुछ डायरियों को ज़िन्दगी दी जाए
बचपन के दिनों को
एक बार फिर
दोहराया जाए
खुशियों के घाट पर
छपक छइया खेला जाए
चलो ना !
ये जो ख्वाहिश जागी है
क्या पता,
कल फिर जगे ना जगे !

23 नवंबर, 2019

अंतिम विकल्प या दूसरा अध्याय 





मृत्यु अंतिम विकल्प है जीवन का
या जीवन का दूसरा अध्याय है ?
जहाँ हम सही मायनों में
आत्मा के साथ चलते हैं
या फिर अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति का
रहस्यात्मक खेल खेलते हैं ?!
औघड़,तांत्रिक शव घाट पर ही
खुद को साधते हैं
... आखिर क्यों !
जानवरों की तरह मांस भक्षण करते हैं
मदिरा का सेवन किसी खोपड़ी से करते हुए,
वे सामने से गुजरते व्यक्ति को कुछ भी कह देते हैं !!
यह क्या है ?
कितनी बार सोचा है,
बैठकर किसी औघड़ के पास
उलझी हुई गुत्थियाँ सुलझाऊँ ...
क्या सच में कोई मृत्यु रहस्य उन्हें मालूम है,
या यह उनके भीतर के जीवन मृत्यु का द्वंद्व है !,
ध्यान समाधान है
अथवा नशे में धुत नृत्य !
खामोशी
स्वयं को निर्वाक कर लेने का
स्रोत है कोई
या किसी अंतहीन चीख की अनुगूंज !!
जो जीवित दिखाई दे रहे,
वे क्या सचमुच जीवित है
जिनके आगे हम राम नाम की सत्यता का जाप करते हैं
वे क्या सचमुच मूक बधिर हो चुके हैं ?
सत्य की प्रतिध्वनि मिल जाये
तो सम्भवतः जीवन का रहस्य खुले ...

12 नवंबर, 2019

मेरे सहयात्री




मन को बहलाने
और भरमाने के लिए
मैंने कुछ ताखों पर
तुम्हारे होने की बुनियाद रख दी ।
खुद में खुद से बातें करते हुए
मैंने उस होने में प्राण प्रतिष्ठा की,
फिर सहयात्री बन साथ चलने लगी,
चलाने लगी ...
लोगों ने कहा, पागल हो !
भ्रम में चलती हो,
बिना कोई नाम दिए,
कैसे कोई ख्याली बुत बना सकती हो !
लेकिन मैंने बनाया था तुम्हें
ईश्वर की मानिंद
तभी तो
कई बार तुम्हें तोड़ा,
और तुम जुड़े रहे,
किसी भी नाम से परे,
रहे मेरे सहयात्री,
मेरी हार-जीत का अर्थ बताते रहे,
शून्य की व्याख्या करते हुए
अपने साथ मुझे भी विराट
और सूक्ष्म बना दिया ।

10 अक्टूबर, 2019

सात समन्दर पार 




सात समंदर पार ... मेरी अम्मा स्व सरस्वती प्रसाद जी की कलम का जादू है । बचपन के खेल, परतंत्र राष्ट्र के प्रति उनके वक्तव्य उनकी कल्पना को उजागर करते हैं ।

यह कहानी मैंने कितनी बार पढ़ी, कितनों को सुनाई ... मुझे ख़ुद याद नहीं... लेकिन जितनी बार इस कथा-यात्रा से गुज़री , बचपन, देश, प्रेम और आँसुओं की बाढ़ मुझे बहा ले गई!

इस निरन्तर यात्रा के बाद मुझे एहसास हुआ कि क्यों उन्हें कविवर पन्त ने अपनी मानस पुत्री के रूप में स्वीकार किया! क्यों उन्होंने अपनी पुस्तक लोकायतन की पहली प्रति की पहली हक़दार समझा.

मेरा कुछ भी कहना एक पुत्री के शब्द हो सकते हैं, किन्तु मेरी बात की प्रामाणिकता 'सात समन्दर पार" को पढ़े बिना नहीं सिद्ध होने वाली. तो मेरे अनुरोध पर....... सात समंदर पार को पढ़िए, और कुछ देर के लिए सुमी-सुधाकर बन जाइये ।

एक बहुमूल्य हस्ताक्षर के लिए आज ही ऑर्डर कीजिये





02 अक्टूबर, 2019

हीर सी लड़की के ख्वाब






टिकोले में नमक मिर्च मिलाती
वह लड़की
सोलह वर्ष के किनारे खड़ी
अल्हड़ लहरों के गीत गाती थी !
भोर की पहली किरण के संग
जागी आँखों में,
उसके सपने उतरते थे
एक राजकुमार
कभी किसान सा,
कभी कुम्हार सा,
कभी समोसे लिए,
कभी मूंगफली,
कभी चेतक घोड़े पर,
कभी वर्षों से सोई अवस्था में,
कभी राक्षस को मारते हुए
उसके सामने आता,
और वह सावन का झूला बन जाती थी ।
समर्पित सी वह लड़की,
कहानियों वाले राजकुमार के शरीर से
सुइयां निकालती ...
शर्माती पारो बनी बोलती,
श्री देवदास ।
आधी रात को निकल पड़ती पूछने,
"मुझसे ब्याह करोगे"
...
बंगाली सुहागन बनकर
बड़ी सी कोठी में,
चाभियों का गुच्छा लिए घूमती ।
साहेब बीबी और गुलाम की छोटी बहू बन
एक इंतज़ार लिए सजती सँवरती ...
सोलहवां साल पागल था
या खुद वह !
जो भी हो,
उसकी आँखों से जो ख्वाब टपकते थे,
उसमें सारे रंग
सारे रस हुआ करते थे ।
वह ढेर सारी कहानियाँ पढ़ती
और क्रमशः सभी पात्रों को जीती ।
हाँ, उसमें जोड़-घटाव करना
कभी नहीं भूलती थी ।
जैसे,
यशोधरा बन वह करती थी बुद्ध से सवाल
सिद्धार्थ बनकर रहने और जीने में,
क्या भय था ?
वह कौन सा ज्ञान था,
जो मेरे बनाये भोजन में नहीं था ?
वह मानती थी,
कि प्रेम समर्पण से पहले
एक विश्वास है,
और जहाँ विश्वास है,
वहाँ समर्पण लक्ष्य नहीं होता ।
वह लड़की खोई नहीं है,
आज भी ख्यालों में टिकोले तोड़ती है,
नमक मिर्च लगाकर
खट्टी खट्टी,तीखी तीखी सी हो जाती है,
कभी चन्दर की सुधा बन जाती है,
कभी कोई पहाड़ी लड़की,
सोलहवें साल की गुनगुनाहट
आज भी उसके गले में तैरती है ।
हीर सी उस लड़की के ख्वाब
आज तलक,
रांझा रांझा ही हैं ।



18 सितंबर, 2019

ज़िन्दगी एक चमत्कार




दिल कर रहा है,
मन की तमाम विपरीत स्थितियों से,
खुद को अपरिचित कर लूँ,
बैठ जाऊँ किसी नदी के किनारे
और पूछूं,
मछली मछली कितना पानी ।
नदी में पैर डालकर छप छप करूँ,
कागज़ की नाव में रखकर कुछ सपने
नदी में डाल दूँ,
देखती रहूँ उसकी चाल
तबतक,जबतक वह चलने का मनोबल रखे !
डूबना तो सबको है एक दिन,
कागज़ की नाव भी डूबेगी,
पर इतना प्रबल विश्वास है
कि जिस छोर भी डूबेगी,
वहाँ सपनों को एक आधार दे जाएगी ।
जी हाँ,
ज़िन्दगी एक चमत्कार है,
रहस्यों का भंडार है,
मिलिए एकांत से
- देखिए चमत्कार,
मन की विपरीत स्थितियों को मिलेगी अनुकूलता,
...मेरा यह विश्वास न कभी डगमगाया था,
न डगमगाएगा,
खुद आजमा लीजिये,
फिर कीजिये उसे साझा,
... बिना किसी बाधा के,
यह है एक सहज रास्ता। ...

04 सितंबर, 2019

माँ माँ होती है (काल्पनिक लघु कथा)




एक बार सभी देवी देवता अपने बच्चों के साथ महादेव के घर पहुँचे । विविध पकवानों की खुशबू से पूरा कैलाश सुवासित हो उठा था । अन्नपूर्णा अपने हाथों सारे व्यंजन बना रही थी ! मिष्टान्न में खीर,रसगुल्ला,गुलाबजामुन,लड्डू... इत्यादि के साथ अति स्वादिष्ट मोदक बन रहा था ।

भोजन शुरू हुआ, सभी देवी-देवता मन से सबकुछ ग्रहण कर रहे थे । बच्चों के बीच मीठे पकवान की होड़ लगी थी, अचानक माँ पार्वती अपनी जगह से उठीं, रसोई में जाकर एक डब्बे में मोदक भरकर छुपा दिया कि कहीं खत्म न हो जाए और मेरा गन्नू उदास न हो जाये !

यह माँ की आम विशेषता है, अपने बच्चे के लिए इतनी बेईमानी हो ही जाती है ।

18 अगस्त, 2019

विश्वास है





















सोई आँखों से कहीं ज्यादा,
मैंने देखे हैं,
देखती हूँ,
जागी आंखों से सपने ।
सकारात्मक,
आशाओं से भरपूर ...
बहुत से सच हुए,
और ढेर सारे टूट गए !
पर हौसले का सूर्योदय
बरक़रार है,
क्योंकि विश्वास मेरे सिरहाने है,
बगल की मेज,
खाने की मेज,
रसोई,
बालकनी,
खुली खिड़की,
बन्द खिड़की,
... और मेरे पूजा घर में है ।
विश्वास मेरी धड़कनों में है,
एक एक मुस्कान में है ।।
यूँ ही नहीं कहती मैं,
"सब बहुत अच्छा होगा"
निन्यानबे पर सांप के काट लेने से क्या,
सौ पर पहुंचना ही मेरा सपना है,
और पहुंच के दम लेना,
विश्वास है ।

11 अगस्त, 2019

अलग अलग नाप की मुस्कान




रात में,
जब कह देते हैं लोग शुभरात्रि
वक़्त के कई टुकड़े पास आ बैठते हैं,
सन्नाटा कहता है,
सब सो गए !
लेकिन जाने कितनी जोड़ी आँखें
जागती रहती हैं,
लम्बी साँसों के बीच
ज़िन्दगी को रिवाइंड करती हैं,
फिर एक प्रश्न
आँखों के सूखे रेगिस्तान में तैरता है
"जिन देवदारों ने तूफानों में दम तोड़ दिया,
उसकी टूटन को मिट्टी में मिलाकर,
कैसे कोई दर्द को शब्द देता है !"
क्या सच में वह दर्द
दर्द होता है ?
अनुत्तरित स्थिति में नींद आ जाती है,
सुबह जब आँखें खुलती हैं,
तब सर भारी भारी होता है,
सामने होती है लम्बी दिनचर्या
और ...
डब्बे में पड़ी अलग अलग नाप की मुस्कान से
एक मुस्कान निकाल लेता है,
प्रायः हर कोई,
सामनेवाले को क्या दिखाई दे रहा,
इससे बेखबर,
वह मुस्कान की धार पर चलता जाता है ...।

08 अगस्त, 2019

वक्रतुंड विघ्नहर्ता



गणपति सुखकर्ता,
वक्रतुंड विघ्नहर्ता,
गौरीनन्दन,
शिव के प्यारे,
कार्तिकेय की आंखों के तारे,
खाओ मोदक,
झूम के नाचो,
झूम के नाचो
महाकाय ... गणपति सुखकर्ता ...

लक्ष्मी संग विराजो तुम
सरस्वती संग विराजो तुम
ज्ञान की वर्षा,
धन की वर्षा
करके हमें उबारो तुम
गणपति सुखकर्ता ...

आरती तेरी मिलकर गायें,
चरणों में नित शीश झुकाएं,
दूब, सुपारी लेकर बप्पा
तेरी जय जयकार करें
विघ्न हरो बप्पा
विघ्न हरो
गणपति सुखकर्ता ...

01 अगस्त, 2019

बाकी सब अपरिचित !!!




खूबसूरत,
सुविधाजनक घरों की भरमार है,
इतनी ऊंचाई
कि सारा शहर दिख जाए !
लेकिन,
वह लाल पक्की ईंटों से बना घर,
बेहद खूबसूरत था ।
कमरे के अंदर,
घर्र घर्र चलता पंखा,
सप्तसुरों सा मोहक लगता था ।
घड़े का पानी,
प्यास बुझाता था,
कोई कोना-
विशेष रूप से,
फ्रिज के लिए नहीं बना था ।
डंक मारती बिड़नियों के बीच,
अमावट उठाना बाज़ीगर बनाता था ।
सारे दिन दरवाज़े खुले रहते थे,
बस एक महीन पर्दा खींचा रहता ।
जाड़ा हो या गर्नी,
वर्षा हो या आँधी
कोई न कोई घर का बड़ा जागता मिलता था,
मेहमानों के आने की खुशी होती थी,
बासमती चावल की खुशबू बता देती थी,
कोई आया है !
अब तो बस घरों की खूबसूरती है,
लम्बी कार है,
बाकी सब अपरिचित !!!

25 जुलाई, 2019

कुछ देर के लिए ही,ज़ुबान मिल जाये ।।।





यूँ तो मुझे अब बात-बेबात,
कोई दुख नहीं होता,
लेकिन विष-अमृत का मंथन
चलता रहता है !
मन के समन्दर से निरन्तर,
सीप निकालती रहती हूँ,
कुछ मोती,
कुछ खाली सीपों का खेल
चलता रहता है ।
निःसन्देह,
खाली सीप बेकार नहीं होते हैं,
उसमें समन्दर की लहरों की
अनगिनत कहानियाँ होती हैं,
कुछ निशान होते हैं,
कुछ गरजते-लरजते एहसास होते हैं,
बिल्कुल एक साधारण आदमी की तरह !
अति साधारण आदमी के पास भी,
सपनों की,
चाह की प्रत्यंचा होती है,
कोई प्रत्यंचा इंद्रधनुष की तरह दिख जाती है,
कोई धुंध में गुम होकर रह जाती है !
लेकिन उस गुम प्रत्यंचा का भी,
अपना औरा होता है -
कहीं दम्भ से भरा हुआ,
कहीं एक विशेष लम्हे के इंतज़ार में टिका हुआ,
...
मैं दुखों से परे,
किसी खानाबदोश की तरह,
उस औरा को देखती हूँ,
... समझने की कोशिश में,
उसकी गहराइयों में डुबकियां लगाती हूँ
दुख से छिटककर एक अलग पगडंडी पर,
नए अर्थ तलाशती हूँ,
अवश्यम्भावी मृत्यु से पहले,
अकाट्य सत्य लिखने की कोशिश करती हूँ,
ताकि अनकहे,अनलिखे लोगों के चेहरे पर,
एक मुस्कान तैर जाए,
ख़ामोशी को कुछ देर के लिए ही सही,
ज़ुबान मिल जाये ।।।

09 जुलाई, 2019

राजनीति थी





राजनीति थी,
श्री राम ने रावण से युद्ध किया,
सीता को मुक्त कराया,
फिर अग्नि परीक्षा ली
और प्रजा की सही गलत बात को
प्राथमिकता देते हुए वन भेज दिया !
फिर कोई खबर नहीं ली
कि सीता जीवित हैं
या पशु उनको खा गए,
या जब तक जिंदा रहीं,
निर्वाह के लिए,
उनको कुछ मिला या नहीं ।
क्या सीता सिर्फ पत्नी थीं ?
और राजा के न्याय के आगे सब विवश थे ?
...
राजनीति थी,
श्री कृष्ण ने पाँच ग्राम के विरोध में,
महाभारत का दृश्य दिखाया ।
द्रौपदी की लाज रखी,
लेकिन जिन मुख्य अभियुक्तों ने,
द्रौपदी को दाव पर लगाया,
उनको कोई सज़ा नहीं दी !
(बात समय की नहीं, प्रत्यक्षतः कृष्ण की है)
सत्य को पहले से जानते हुए,
युद्ध के पूर्व कर्ण को सत्य बताया,
प्रलोभन दिया ...
सूर्यग्रहण एक ईश्वर की राजनीति थी,
महाभारत की जीत,
एक कुशल राजनीति थी !
हर युग,हर शासन काल में
कुशल,कुटिल राजनैतिक दावपेंच रहे हैं,
कोई राजनेता दूध का धुला नहीं होता,
हो ही नहीं सकता,
विशेषकर विरोधी पक्ष के लिए,
हत्या,अपहरण, अन्याय ,अधर्म
हर काल में हुए हैं,
होते रहेंगे,
क्योंकि कभी प्रजा बाध्य करती है,
कभी खुद राजा बाध्य होता है !
इसीके मध्य कोई उंगली उठाता है,
कोई उंगली तोड़ देता है,
कहने को तो हर कार्य का
कोई न कोई प्रयोजन है ही,
और जो होना है,
वह होता ही है ...
सम्भवतः यही हो होनी की राजनीति !!!

03 जुलाई, 2019

सर से पाँव तक - सिर्फ बारिश




काश मैं ही होती मेघ समूह,
गरजती, कड़कती बिजली ।
छमछम,झमाझम बरसती,
टीन की छतों पर,
फूस की झोपड़ी पर,
मिट्टी गोबर से लिपे गए आंगन में ।
झटास बन,
छतरी के अंदर भिगोती सबको,
नदी,नाले,झील,समंदर
सबसे इश्क़ लड़ाती,
गर्मी से राहत पाई आँखों में थिरकती,
फूलों,पौधों,वृक्षों की प्यास बुझाती,
किसी सूखी टहनी में,
फिर से ज़िन्दगी भर देती ।
बच्चों की झुंड में,
कागज़ की नाव के संग,
आंखमिचौली खेलती,
छपाक छपाक संगीत बन जाती,
गरम समोसे,
गर्मागर्म पकौड़े खाने का सबब बनती,
किसी हीर की खिलखिलाती हँसी बनती,
बादल बन जब धीरे से उतरती,
मस्तमौलों का हुजूम,
चटकते-मटकते भुट्टों के संग,
शोर मचाता ।
कुछ चिंगारियाँ मेरी धुंध लिबास पर
छनाक से पड़ती,
सप्तसुरों में,
कोई मेघराग गाता ...
किसी अस्सी,नब्बे साल की अम्मा के
पोपले चेहरे पर ठुनकती,
वह जब अपने चेहरे से मुझे निचोड़ती,
तब मैं बताती,
इमारत कभी बुलन्द थी ।
बाबा के बंद हुक्के का धुआं,
राग मल्हार गाता,
किसी बिरहन की सोई पाजेब,
छनक उठती
काश, मैं बादलों का समूह होती,
झिर झिर झिर झिर बारिश होती
सर से पाँव तक - सिर्फ बारिश ।

01 जुलाई, 2019

मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है ।




दिल करता है,
आगे बढ़ूँ और मुखौटे उतार दूँ,
कभी-कभी उतारा भी है,
लेकिन-
बहुत जटिल प्रक्रिया है ये,
मुखौटे लगनेवाले,
असली चेहरों को लहूलुहान करने की कला में,
निपुण होते हैं ।
और ... दुनिया उन पर ही विश्वास करती है,
शायद करने को,
या चुप रहने को बाध्य होती है ।

लेकिन ये मुखौटे,
सिर्फ गंदे,भयानक ही नहीं होते,
वे भी होते हैं,
जो इन मुखौटों के आगे
हम चाहे-अनचाहे लगा लेते हैं,
कभी मुस्कुराता हुआ,
कभी निर्विकार सहजता का,
दूरी महसूस करते हुए भी,
एक अपनत्व का !!

दिल करता है,
मुखौटे उतार दूँ,
झूठमूठ की सहजता खत्म कर दूँ,
लेकिन ...
बिना मुखौटों के चलना
मुश्किल ही नहीं,
नामुमकिन है ।

21 जून, 2019

गौर कीजियेगा




प्रेम विवाह हो
या तय की गई शादी
या कोई भी रिश्ता,
अनबन की वजहें प्रायः वह नहीं होतीं,
जो उनकी लड़ाई में दिखाई देती हैं,
या शब्दों में सुनाई देती हैं !
विशेषकर तब ,
जब कोई एक पक्ष आत्महत्या कर ले !!
मुमकिन है वे वजहें उनके द्वारा नहीं उठाई गई हों,
बल्कि सौगात में मिली हो ।
जैसे,
मज़ाक करनेवाले
ठहाके लगाते,
लड़की या लड़के को कहते हैं
"तुमने उसको कैसे पसन्द किया,
वह तो तुम्हारे आगे कुछ नहीं "
यह एक मज़ाक,
हर बार आईने के आगे आता है ...
बुद्धिजीवी की तरह यह कहना आसान है,
कि मज़ाक को मज़ाक की तरह लेना चाहिए,
या-
अर्रे इसे दिल पर लेने की क्या ज़रूरत !"
आपकी समझदारी ने आपसे कभी कहा
कि ऐसा हल्का मज़ाक नहीं करना चाहिए !!
हमारा एक मज़ाक,
या हमारा शुभचिंतक होना,
किसी की ज़िन्दगी में ज़हर घोल सकता है,
आपसी रिश्तों को बिगाड़ने का सबब बन सकता है ...
कभी गौर कीजियेगा ।

20 जून, 2019

विरासत में मिली व्यथित खामोशी




एक माँ,
या एक पिता,
जब अपनी चुप्पियों का दौर पूरा करके,
अपने बच्चों की दूसरी ज़िन्दगी का
साक्ष्य बनते हैं,
और उनकी ज़िन्दगी में देखते हैं,
वही अनकहा तूफ़ान,
तब वे सही निर्णय नहीं ले पाते !
उनको कभी लगता है
-समय पर विरोध ज़रूरी है,
कभी लगता है,
विरोध से होगा क्या ?!
समाज में बदलाव नहीं आया,
हममें बदलाव नहीं आया
 - सिवाए एक चुप के,
तो यहाँ क्या बदलेगा !!
बच्चे का मन अकुलाता है
उनकी चुप व्यथा से,
वह गरजता है,
आग उगलता है,
आँसू बहाता है ...
फिर अपने बच्चे की ख़ातिर,
ओढ़ लेता है वही व्यथित खामोशी,
जो उसे विरासत में मिली होती है !

18 जून, 2019

कतरा कतरा जीना




माना,
मेरे पास गुलाबों की क्यारी नहीं,
लेकिन मेरे मन की एक पंक्ति
गुलाबों से भरी है ।
माना,
पंक्तिबद्ध रजनीगंधा नहीं,
लेकिन,
मेरा मन उसकी खुशबुओं से भरा है ।
माना,
किसी कोने में बोगनवेलिया नहीं,
लेकिन,
गज्जब की लालिमा छाई रहती है मन में ।
महानगर के छोटे से फ्लैट में,
कपड़े फैलाने के लिए भी भरपूर जगह नहीं,
लेकिन,
जब भी मेरे मन की बालकनी में देखोगे,
पाओगे बसन्त,
जो एक अक्षुण्ण विरासत है ।

माना,
मेरे सिरहाने के पास की छोटी सी मेज पर
एक बोतल,एक ग्लास, तेल,इत्यादि नहीं,
तकिए के नीचे,
कोई कलम डायरी नहीं,
लेकिन मेरे मन के दराज में सबकुछ है-
एक छोटी सी बोतल,
वो ठंडा तेल,
बड,
इयरफोन के ढेरों तार,
रबरबैंड,
डायरी में रोज का प्यार,
थोड़ा गुस्सा,
थोड़ा इंतज़ार,
थोड़ा डूबा डूबा मन,
और शून्य में खोई माँ की कलम से
आड़ी तिरछी खिंची रेखाएं !

मैं मन के घाट पर ही तर्पण अर्पण करती हूँ,
संभाले हुए संदूक में नेप्थलीन की खुशबू,
यह एहसास देती है
कि सबकुछ अपनी जगह पर है ।
मानती हूँ,
मैं मात्र दिखाने,बताने,जताने के लिए
कुछ नहीं करती,
बिना किसी उठापटक के
उसे कतरा कतरा जीती हूँ
हर दिन ।

08 जून, 2019

नहीं चाहिए कोई न्याय



हमें निष्कासित कर दो इस समाज से
हम वीभत्स शब्दों
और घटनाओं से बुरी तरह हिल जाते हैं,
बीमार हो जाते हैं !
नहीं चाहिए कोई न्याय,
उम्मीद ही शेष नहीं रही ।
मुद्दा, बहस और शून्य निष्कर्ष के अतिरिक्त,
कुछ भी नहीं रहा हमारे पास ।
हम नहीं कर सकते बड़ी बड़ी बातें,
सिर्फ कुछेक उदाहरणों के सहारे
नहीं जी सकते,
ज्ञान लेकर क्या होगा?
और कितनी सहनशीलता बढ़ानी होगी?
कैसे मन को एकाग्र करें,
ध्यान में लीन हो जायें,
जब किसी की चीख
हथौड़े की तरह
दिल और दिमाग पर पड़ती है !
नहीं है इतना सामर्थ्य,
कि कभी आदमी मौत के घाट उतारे
कभी प्रकृति
और हम भाषण दें
कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ का असर है,
मीडिया द्वारा परोसे गए दृश्यों का परिणाम है,
आधुनिकता की अंधी दौड़ का असर है !!!
जो भी हो,
हर कोई भुगत रहा है
लेकिन रोकने को कोई तत्त्पर नहीं,
सम्भवतः हिम्मत भी नहीं ।
कौन खुद को आग में डाले,
जब तक अपने नसीब में पानी है,
सब ठीक है ।
लेकिन हम ठीक नहीं,
बहुत बीमार हैं,
बीमार होते जा रहे
बहुत भयानक सपने आते हैं
डर डर के मुस्कुराना,
मुश्किल होता जा रहा है ।
क्या कहूँ,
अपने बच्चे का सर जब सहलाती हूँ
तब जाने किसका घायल बच्चा
मेरे कान में कहता है
- मुझे बचा लो !!!
मैं बेवजह निर्मम होती जा रही हूँ,
सबकुछ अनसुना कर दुआओं के बोल बुदबुदा रही हूँ,
तूफानों के बीच,
अपने पेट की भूख मिटा रही हूँ
...!!!
हमें  निष्कासित कर दो,
हम इस मूक,बहरे समाज में रहने योग्य नहीं रहे ।

27 मई, 2019

पुरानी सिलाई मशीन और अम्मा




पुरानी सिलाई मशीन देखकर
मुझे मेरी अम्मा याद आती है,
हमारा सुई में धागा पिरोना,
और उसका झुककर
तेजी से मशीन चलाना ।
कई बार मैं हैंडिल के बीच में
अपनी उंगली रख देती थी,
अम्मा ज़ोर से डांटती
तो सिहरकर सोचती,
अरे मैंने क्या कर दिया !
मुझे यह खेल लगा,
बदमाशी नहीं,
पर बार बार मना करने के बाद भी
ऐसा करना,
बड़े लोग बदमाशी ही मानते हैं,
सो अम्मा ने भी माना,
कई बार कान भी उमेठे ।

स्वेटर तो हम भी बनाते थे,
लेकिन जो तत्त्परता अम्मा में होती थी,
वह मन्त्र जाप के समान थी ।
गला बुनते समय,
उसमें एक रत्ती भी कमी हो
तो वे सोती नहीं थीं,
अगर जबरन सोने कहा जाए
तो वे सबके सोने का इंतजार करती थीं
और फिर उठकर उसको संवारती थीं ।
घर की छोड़ो,
आसपड़ोस,रिश्तेदारी में भी
उनके बुने स्वेटर सबने पहने ।

पापा के नहीं रहने के बाद
रिवाजों के बंधन में,
अम्मा ने पहन ली थी सफेद साड़ी,
हमने ही विरोध किया...
फिर अम्मा पहनने लगी थी
गहरे रंगों की साड़ी ।
बिंदी लगाना छोड़ दिया था,
बाद में हमारे कहने पर
डाल ली थी दो चूड़ियाँ,
मेरे ज़ोर देने पर,
पैरों के नाखून रंगवाने लगी थी ।
याद आता है,
सीधे पल्ले में अम्मा का मुस्कुराता चेहरा,
गले में पड़ा चेन,
हाथों में सोने की चूड़ियाँ,
और उंगली में हीरे सी चमकती अंगूठी ...
सुंदर साड़ी हो
तो अम्मा झट तैयार हो जाती थी ।
वो साड़ियाँ,
आज भी अम्मा का इंतज़ार करती हैं ।

पापा के जाने के बाद,
बहुत साहसी हो गई थी अम्मा,
डरते हुए भी
उसका साहस कभी कम नहीं हुआ ।
सिलाई मशीन सी
याद आती है अम्मा ।।

21 मई, 2019

परिणाम सबको झेलना होता है !!!




कृष्ण जब संधि प्रस्ताव लेकर आये,
तो उन्हें ज्ञात था
कि इस प्रस्ताव का विरोध होगा ।
यह ज्ञान महज इसलिए नहीं था
कि वे भगवान थे !
बल्कि, व्यक्ति का व्यवहार
और उसके साथ खड़ा एक मूक समूह,
बता देता है - कि क्या होगा ।
तो भरी सभा में
कृष्ण की राजनीति तय थी ।
दुर्योधन की धृष्टता पर
उन्होंने दाव पेंच नहीं खेले,
अपितु सारा सच सामने रख दिया ।
सभा तब भी चुप थी,
और दुर्योधन उनको मूर्ख समझ रहा था !
समय की नज़ाकत देखते हुए,
कर्ण को रथ पर बिठाया,
सत्य से अवगत कराया,
फिर होनी के कदमों के उद्देश्य को
सार्थक बनाया !
झूठ,
छल,
स्वार्थ,
विडम्बना,
प्रतिज्ञा,
शक्ति प्रयोग
हस्तिनापुर के दिग्गजों का था,
जब मृत्यु अवश्यम्भावी हो गई,
तब कृष्ण को प्रश्नों के घेरे में डाल दिया !
कृष्ण ने जो भी साम दाम दंड भेद अपनाया,
वह सत्य की खातिर,
द्रौपदी के मान के लिए,
क्रूर घमंड के नाश के लिए
. . . इस राजनीति पर
पूजा करते हुए भी,
सबकेसब सवाल उठाते हैं,
लेकिन जिन बुजुर्गों ने कारण दिया,
उनसे कोई सवाल नहीं ।
युग कोई भी हो,
गलत चुप्पी
और साथ का हिसाब किताब होता है,
आँख पर पट्टी बांध लेने से,
गांधारी बन जाने से,
दायित्वों की तिलांजलि देकर
कोई बेचारा नहीं होता,
सिर्फ अपराधी होता है,
और अपराध से निपटने के लिए,
स्वतः खेली जाती है
"खून की होली"
परिणाम सबको झेलना होता है !!!

12 मई, 2019

देखना फिर ...माँ कुछ भी कर सकती है




माँ का दिन तो उसी दिन से शुरू हो जाता है,
जब पहले दिन से
नौवें महीने तक
प्रसव पीड़ा से लेकर
बच्चे को छूने के सुकून तक
एक स्त्री
बच्चे की करवटों से जुड़ जाती है ।
बच्चे के रुदन से सुनाई देता है
"माँ"
और वह मृत्यु को पराजित कर
मीठी मीठी लोरी बन जाती है ।
चकरघिन्नी सी घूमती माँ,
तब तक नहीं थकती,
जब तक वह अपने बच्चे की आंखों में,
नींद बनकर नहीं उतर जाती,
सपनों के भयमुक्त द्वार नहीं खोल देती,
नींद से सराबोर
बच्चे के चेहरे की भाषा नहीं पढ़ लेती,
बुदबुदाकर सारी बुरी दृष्टियों को
भस्म नहीं कर देती !
कमाल की होती है एक माँ,
बच्चे को वह भले ही उंगली छोड़कर,
दुनिया से जूझना सिखा दे,
लेकिन अपनी अदृश्य उंगलियों से,
उसकी रास थामके चलती है,
सोते-जागते अपने मन के पूजा स्थल पर,
उसकी सुरक्षा के दीप जलाती है ।
जानते हो,
मातृ दिवस रविवार को क्यों आता है
ताकि तुम सुकून से,
माँ के द्वारा बुने गए पलों की गर्माहट को
गुन सको,
सुन सको
और पुकारो - माँ,
इस पुकार से बेहतर
कोई उपहार नहीं,
जो उसे दिया जा सके ।
और दुनिया के सारे बच्चो,
तुमसे मेरा,
एक माँ का यह अनुरोध है
कि जब तुम्हें वह थकती दिखाई दे,
उस दिन तुम अपनी अदृश्य उंगलियों से,
उसे थाम लेना,
अपने मन के पूजा स्थल पर एक दिया
उसके सामर्थ्य की अक्षुण्णता के लिए
रख देना जलाकर,
देखना फिर .... वह कुछ भी कर सकती है,
हाँ - कुछ भी ।

02 मई, 2019

तुम मुर्दा हो




अगर तुम्हारे जीने का कोई मकसद नहीं, तो तुम मुर्दा हो ।
अगर तुम्हारे भीतर किसी के लिए संवेदना नहीं,
तो तुम मुर्दा हो ।
अगर इंद्रधनुष देखकर तुम कभी नहीं झूमे,
कोई कौतूहल नहीं उठा तुम्हारे मन में,
तो तुम मुर्दा हो ।
पैसे से बढ़कर यदि तुम्हें जीवन का अर्थ समझ में नहीं आया,
तो तुम मुर्दा हो ।
किसी के लिए तुम्हारा मन ईश्वर के आगे नहीं झुका,
तो तुम मुर्दा हो ।
तुमको अपने स्वार्थ के आगे कुछ नहीं नज़र आया,
तो तुम मुर्दा हो ।
अपनी ग़लतियों को गर तुमने हमेशा किसी कारण का जामा पहना दिया,
या मानने से इंकार कर दिया,
तो तुम मुर्दा हो ।
एक छोटे से बच्चे में यदि तुम्हें ख़ुदा नज़र नहीं आया,
तो तुम मुर्दा हो !!!
वो जो चंद सांसें अब भी हैं तुम्हारे अंदर,
उसको अर्थवान बनाओ,
किसी डूबते के लिए तिनका बन जाओ,
अपने मुर्दा शरीर को मुक्ति दे जाओ...

25 अप्रैल, 2019

कृष्ण मुझे क्षमा करना या आशीष देना



कृष्ण,
मुझे क्षमा करना यदि तुम्हें अति लगा हो,
या फिर मेरे सर पर अपना हाथ रख देना,
यदि तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान आई हो
यह सुनकर -
कि,
तुमने कुरुक्षेत्र में जिस तरह अर्जुन का रथ दौड़ाया,
उससे कहीं अधिक कुशलता से
मैं अपने मन का रथ दौड़ाती हूँ ।
केशव,
यह मेरा अभिमान नहीं,
यह तुम ही हो,
जिसने अर्जुन से कहीं अधिक,
अपना विराट स्वरूप दिखाकर
मेरे भव्य स्वरूप को उभारा ।
गीता का सार अपने मुख से सुनाया,
और उतना ही सुनाया,
जितना मेरे लिए ज़रूरी था ।
उंगली थामकर
एक नहीं,
कई बार मुझे ब्रह्मांड दिखाया ...
मुझ लघु को
मेरे अस्तित्व की पहचान दी
और बिना कोई प्रश्न उठाये
मुझमें अपनी पहचान दे दी ।

21 अप्रैल, 2019

हार में भी जीत का सुकून




खरगोश बहुत तेज भागता है,
एक बार गुमान लिए हार गया,
पर भागता तो वही तेज है !
बात कहानी की गहरी है,
लेकिन हर जगह यही कहानी
साकार नहीं होती ।
होती भी हो,
बावजूद इसके
मैं कछुए की चाल में चलती हूँ,
हारना बेहतर है
या जीतना
- इस पर मनन करती हूँ ।
जीतकर सुकून हासिल होगा
या हारकर अपना "स्व" सुरक्षित लगेगा,
ये सोचती हूँ ।
जब लोग धक्का देकर आगे बढ़ रहे होते हैं,
मैं स्थिर हो जाती हूँ,
यह सोचकर
कि या तो भीड़ मुझे भी धक्का देती
आगे कर देगी
या फिर एक निर्धारित समय
मुझे वहाँ ले जाएगा,
जिसके सपने मैं हमेशा से देखती रही हूँ,
आज भी सपनों में कोई दीमक नहीं लगा है,
मेरे पास और कुछ हो न हो,
उम्मीद और विश्वास अपार है,
मैं आज भी नहीं मानती
कि जो जीता वही सिकन्दर !
वह सिकन्दर हो सकता है,
लेकिन अपने मन में
कहीं न कहीं अधूरा होता है,
यही अधूरापन
उसे कभी खरगोश बनाता है,
कभी ख़िलजी,
ईर्ष्या, घमंड के बंधन से
वह मृत्यु तक नहीं निकल पाता ।
खुद को श्रेष्ठ समझते समझते,
वह अकेला हो जाता है,
अपना मैं भी साथ नहीं होता
ऐसे में उसके जैसा ग़रीब
और हताश व्यक्ति ,
कोई नहीं होता !!
मैं हारकर भी नहीं हारी,
रोकर भी कभी मुरझाई नहीं,
विश्वास के कंधे पर,
नींद की दवा लेकर ही सही
मुझे नींद आ जाती है
और आनेवाला कल
नए विकल्पों से भरा होता है ।

17 अप्रैल, 2019

कुछ ठीक करने का बहाना



कितनी दफ़ा सोचा,
खोल दूँ घर की
सारी खिड़कियां,
सारे दरवाज़े,
आने दूँ हवा
सकारात्मक,नकारात्मक -दोनों !
कीड़े मकोड़ों से भर जाए कमरा,
मच्छड़ काटते जाएं,
सांप, बिच्छू भी विश्राम करें
किसी कोने में ।
भर जाए धूलकणों से कमरा,
सड़कों पर आवाजाही का शोर
कमरे में पनाह ले ले ...
अपने अपने हिस्से की ख़ामोशी में,
घर घर ही नहीं रहा,
अनुमानों के सबूत
इकट्ठा हो रहे,
टीन का बड़ा बक्सा भी नहीं
कि भर दूँ अनुमानों से,
यह काम का है,
यह बेकार है ,
सोचते हुए हम सबकुछ बारी बारी
फेंकते जा रहे हैं !
और जो है,
उसको बेडबॉक्स में रख देते हैं,
और भूल जाते हैं ।
महीने, छह महीने पर जब खोलते हैं
तो फिर बहुत कुछ बेकार
कचरा लगता है
और उसे हटा देते हैं ।
यही सिलसिला चल रहा है
जाने कब से !
अगर आज भी कुछ सहेजा हुआ है
तो कुछ चिट्ठियाँ,
कुछ नन्हे कपड़े,
यादों की थोड़ी सुगन्धित गोलियाँ
.....
खोल दूँगी खिड़की, दरवाज़े
तो झल्ला झल्लाकर
कुछ ठीक करने का बहाना तो होगा,
मोबाइल भला कोई जीने का साधन है !!!

16 अप्रैल, 2019

हमें भगवान के नाम पर बेचारा मत बनाओ !



भगवान ने कहा,
मुझको कहाँ ढूंढे - मैं तो तेरे पास हूँ ।
बन गया एक पूजा घर,
मंदिर तो होते ही हैं जगह जगह ।
अपनी इच्छा के लिए
लोगों ने मन्नत मांगी
किया रुद्राभिषेक,
किलो किलो दूध, गुड़,शहद इत्यादि से
नहलाते गए रुद्र को,
दूध डालने से पहले
बेलपत्र, धतूरा, दही, फूल से उनको ढंक दिया
फिर दूध ...
दूध सारा उड़ेलकर फिर पानी लिया,
अब दूध-दही से सने हुए तो नहीं रहेंगे न !
फिर अच्छे से स्नान,
फिर रोली, चंदन
फूल माला, बेलपत्र, ....
कोई एक व्यक्ति एक दिन करे,
ऐसा होता नहीं,
भगवान भयभीत,
ये फिर मेरी गति करेगा !!!

गणपति से तो हर पूजा ही आरम्भ होती है,
धूप हो या छाया,
वर्षा हो या आँधी,
गणपति को सर्दी लगी हो
या लहर,
उनको दूब से ढंककर,
भांति भांति के मोदक चढ़ाकर
घण्टों आरती गाकर,
हम गणपति को खुश करने की बजाए,
रुला ही देते हैं,
मूषक मुस्काता है,
आखिरी आरती के बाद,
पट बन्द होते
गणपति माँ पार्वती की गोद में
बिलख बिलख के रोते हैं,
"क्या माँ,
ये कोई तरीका है पूजा करने का,
भोग लगाने का !
कितना चिल्लाते हैं सब
"गणपति बप्पा मौर्या,
अगले बरस तू जल्दी आ"...
सुबह पट खुलते सारे भगवान
सिहर उठते हैं ।

माँ दुर्गा कहती हैं,
ये नौ दिन की पूजा मैं समझती हूँ,
लेकिन यह भ्रम कहाँ से शुरू हुआ
कि मैं सातवें दिन आँख खोलती हूँ,
वाहन बदलती हूँ,
या बलि चाहती हूँ ?
मैं पहले दिन से नहीं,
पूरे वर्ष अपने मायके पर दृष्टि रखती हूँ,
किसकी मंशा सही है,
किसकी ग़लत
- सब देखती और समझती हूँ ।
मुझे क्या बलि चढ़ाकर खुश करोगे ?
समय आने पर
मैं हर उस व्यक्ति को मौत के घाट उतारती हूँ,
जिसके भीतर महिषासुर ,शुम्भ-निशुम्भ है,
मेरे नाम पर कन्या पूजन का क्या अर्थ,
पूजना ही है
तो हर दिन उसे स्नेह और सम्मान दो ।
मेरे श्रृंगार से पूर्व,
अपने घर की स्त्रियों के श्रृंगार पर विचारो ।

और कृष्ण !
हताश कृष्ण ने माखन और बांसुरी से
मुँह फेर लिया है ।
इतने सवाल,
इतनी गलत सोच,
और मेरे जन्म पर जश्न !!!
मेरा नाम लो, यही काफ़ी है,
लेकिन उस दिन मुझे पालने में मत झुलाओ,
भूलो मत,
उस दिन मैं अपनी माँ देवकी से
दूर हो गया था,
वह अंधेरी रात एक बहुत बड़ी परीक्षा थी,
पिता वासुदेव के हृदय की धड़कनें,
यमुना की लहरों से अधिक तेज
और तीव्र थीं !
माँ देवकी कारागृह में
आँसुओं में डूबी
रक्षा मन्त्र का जाप कर रही थीं,
माता यशोदा के पास पहुँचने के लिए,
गोकुल को उल्लास से भरने के लिए,
एक देवी ने जन्म लिया
और विलीन हो गईं ।
प्रत्येक भयानक सत्य से अवगत मैं,
बाल लीलाएं दिखाकर,
मनुष्य रूप में खुद को हिम्मत दे रहा था ।
और तुम सब,
अलग अलग नाम से,
मुझसे सवाल करते हो,
धिक्कारते हो
और कृष्ण जन्म पर बधईया गाते हो !
क्या है यह सब ?
मैंने राधा को क्यों छोड़ा,
रुक्मिणी से क्यों ब्याह किया,
मेरी  सहस्रों पटरानियाँ थीं...
तुम मिले हो क्या सबसे ?
और इन सारे प्रश्नों में
यह प्रश्न क्यों नहीं उठाते,
कि कारागृह में ही मुझे माँ देवकी
और पिता वासुदेव ने क्यों नहीं रखा ?
मेरी खातिर तो भविष्यवाणी थी
कि मैं कंस की मृत्यु का कारण बनूँगा,
फिर कैसा भय !
तब तो अधर्म के आगे
मैं अवतार मान लिया गया ....
पूजा करो,
मेरे नाम पर बकवास मत करो,
आये दिन तथाकथित प्रेम करके
खुद को कृष्ण मत मान बैठो ।
यदि इतना ही शौक है मुझसा होने का,
तो उस अधर्म का नाश करो,
जो तुमने ही फैला रखा है . .
है आस्था गर भगवान में,
तो पूजा के नाम पर
ना ही दिखावा करो,
ना ढकोसला !
हम सारे भगवान प्रेम का भोग
स्वयं ले लेते हैं ,
साई कहो या जय बजरंगबली
सब अपने आप में सम्पूर्ण हैं,
भोग-विलास से दूर हैं,
हमें इतना बेचारा मत समझो
कि हमको ही दान करने लगो,
महल बनाओ,
धक्के देकर हमारे दर्शन करो,
टोना-टोटका में इस्तेमाल करो ...
अरे मन से पुकारो,
फिर देखो,
हम तुम्हारे पास हैं,
साथ हैं ।।।

30 मार्च, 2019

सबको समय समझाएगा



क्या हुआ
यदि द्रौपदी का चीरहरण हुआ
और सभा बेबस चुप रही ?!
क्या हुआ
यदि सीता वन में भेज दी गईं
उसके बाद क्या हुआ,
यह अयोध्या क्यों सोचती !
प्रश्न उठाया राम ने,
तो पूरी सभा अकुलाई चुप रही
तो क्या हुआ ?
सीता धरती में गईं,
मान लो, होनी तय थी
बहस कैसी !!
क्या हुआ
यदि सोई यशोधरा को छोड़
सिद्धार्थ चले गए ?
राहुल और यशोधरा के पास महल रहा,
स्वादिष्ट भोजन रहा,
समाज ने क्या प्रश्न उठाये होंगे,
इस व्यर्थ बात पर कैसी माथापच्ची
तुम्हारा क्या गया जो तुम रोओ !
कृष्ण गोकुल से चले गए,
मथुरापति बने,
तो तुम्हें किस बात की शिकायत है ?
युग बीत जाने के बाद,
किसी प्रश्न,उत्तर,अनुमान का
क्या औचित्य ?
कोई ग़लत नहीं बंधु,
न हिंसक, ना अहिंसक !
तुम्हारे "हाँ" या "ना" को ही क्यों सुना जाए ?
सबकी अपनी सोच है,
अपने हिस्से की सहमति,असहमति है ।
झूठ बोलना पाप है कहते हुए
हम कितने सारे झूठ बोलते हैं ...
बोलते हैं न ?
और अपनी समझ से वह वक़्त की मांग थी,
तो दूसरे के झूठ पर हाय तौबा क्यों,
उसके आगे भी वक़्त है ही न ?!
तुम्हारी बेबसी बेबसी
दूसरे की बेबसी नाटक,
हद है बंधु, हद है,
शांत हो जाओ,
न प्रश्नों की भरमार से किसी को घेरो
न उत्तर दो,
यकीन रखो
 सबको समय समझाएगा  !!!

26 मार्च, 2019

परिचय

YOUTUBE.COM
जीवन की आपाधापी में मैंने सपनो का मूल्य जाना, और टूटे फूटे शब्दों में उसे अर्थ देने को आतुर हुई। खामोशियों के रेगिस....

24 मार्च, 2019

आसान नहीं मर जाना



कभी कभी स्थितियाँ बड़ी गम्भीर होती हैं,
इतनी कि जीवन की जगह मृत्यु खड़ी होती है,
मृत्यु अर्थात पूरे वजूद में
श्मशान की लपटें होती हैं !
अदृश्य कफ़न में लिपटा शरीर,
बार-बार,
लगातार,
... अपनी चिता खुद बनाता है,
लेकिन,
आत्महत्या नहीं कर पाता !
आसान नहीं होता मर जाना,
साँसों में जिम्मेदारियां होती हैं,
जो आखिरी सांस से पहले पूछ बैठती हैं
"मेरा क्या होगा?"
अनेकों बार यही सवाल
जीने का कारण बनते हैं,
और यही "कारण"
उन रहस्यों के द्वार खोलते हैं,
जिसे हम "अद्भुत ज्ञान" कहते हैं ।
दर्द का मारा ही
सुख के असली मायने बताता है,
बाकी सब
झूठ है,
सिर्फ झूठ,
बस झूठ !!!

13 मार्च, 2019

बरगद होने के बाद तुम समझोगे



जब तुम्हारी आंखें रोने रोने होती हैं,
जब तुम्हारे होठ थरथराते हैं,
मेरे अंदर प्रसव पीड़ा होती है !
मुझमें घृणा,नफ़रत जैसी कोई स्थिति नहीं,
लेकिन मेरे मस्तिष्क में स्थित त्रिनेत्र,
स्वतः,
उन सारी स्थितियों को स्वाहा करने लगता है,
जो तुमको रुलाते हैं,
कमज़ोर बनाते हैं !
तुम समझोगे इस स्थिति को एक दिन,
जब प्रसव पीड़ा जैसी पीड़ा,
तुम्हारे भीतर होगी
और उस दिन "माँ" के शांत चेहरे के पीछे छुपे दावानल का अर्थ
तुम पंक्ति दर पंक्ति समझ लोगे ।
मैं तुम्हारे सत्य के साथ हूँ,
तुम्हारी ख्वाहिशों के तने पर
मेरी दुआएं बंधी हैं,
लेकिन , आँधियों की चेतावनी मैं हमेशा दूँगी,
शायद वह चेतावनी तुम्हें मेरा रौद्र रूप लगे,
पर, जिन यत्नों से
मैंने तुम्हें वृक्ष बनाया है,
उतनी ही जतन से,
तुम्हारे अस्तित्व से
पक्षियों का कलरव नहीं जाने दूँगी,
मैं तुम्हारी जड़ों में
दीमक नहीं लगने दूँगी
..
बरगद होने के बाद
तुम समझोगे प्रकृति और माँ को :)

10 मार्च, 2019

मत करो नारी की व्याख्या


मत करो नारी की व्याख्या,
वह अनन्त है,
विस्तार है,
गीता सार है ...
शिव की जटा माध्यम बनती है,
तब जाकर वह पृथ्वी पर उतरती है ।
पाप का घड़ा भर जाए,
तो सिमट जाती है,
शनैः शनैः विलुप्त सी हो जाती है ।
सावधान,
वह विलुप्त दिखाई देती है,
होती नहीं,
कब,किस शक्ल में
वह अवतरित होगी,
जब तक समझोगे,
विनाश मुँह खोले खड़ा होगा,
और तुम !!!
तब भी इसी प्रश्न में उलझे रहोगे,
ऐसा क्यों हुआ ??!!
जवाब देने का साहस रखो
तो यह भी तय है
कि गंगा सदृश्य स्त्री
क्षमारूपिणी होगी,
मातृरूपेण होगी ।
शांत भाव लिए
हो जाएगी-
अन्नपूर्णा,सरस्वती,लक्ष्मी
तुलसी बन घर-आँगन को,
सुवासित करेगी ...
दम्भयुक्त उसकी व्याख्या मत करो,
वह हाथ नहीं आएगी,
रहस्यमई सी,
ऋतुओं के रहस्य रंगों में घुल जाएगी,
तुम जबतक उसे पहचानोगे,
वह बदल जाएगी ।

08 मार्च, 2019

उदाहरण यूँ ही तो नहीं स्त्रियाँ




युगों से स्त्रियों की छाप है, वे कभी कमज़ोर नहीं थीं, 
बस अत्यधिक स्वामिभक्ति में अहिल्या हुईं 
प्रेम में पारो बनी 
उन्होंने खुद ही अपनी पहचान मिटा दी ! और जब पहचान मिट जाए तब कौन किसे पूछता है !

प्रेम,ख्याल,रसोई की  खुशबू में ढली स्त्री गलत नहीं थी, दरअसल वह घर की नींव थी  ... परन्तु दिनभर फिरकनी की तरह खटती स्त्री ने जाने कब खुद को रोटी का मोहताज मान लिया, और अपने को बेड़ियों में जकड़ दिया।  निर्भय हो त्रिलोक की परिक्रमा करने की क्षमता रखनेवाली, भयभीत होने लगी - कहाँ जाऊँगी, क्या करुँगी !!!
फिर - वह परित्यक्ता हुई, जला दी गई, गर्भ में ही मरने लगी, सरेराह सरेआम दरिंदगी का शिकार होने लगी !
क्या सच में यही नियति है एक स्त्री की अर्थात, एक माँ , एक बहन, एक पत्नी , एक अस्तित्व की  ?  ....... नहीं, बिल्कुल नहीं !!
स्त्री दुआओं का धागा है, मन्नतों की सीढ़ियाँ है,  ... मान्यताओं पर जाएँ तो दुर्गा,लक्ष्मी, पार्वती है 
निःसंदेह, ताड़का,मंथरा, होलिका,शूर्पणखा भी है 
ठीक उसी तरह जिस तरह, ब्रह्मा,विष्णु,महेश हैं 
तो कंस, रावण, दुःशासन, हिरण्यकश्यप भी है  .... 
फिर भी पुत्र को घी का लड़डू माना जाए, और माखन बनानेवाली यशोदा को अर्थहीन माना जाए - सही नहीं। 

लेकिन यह अंतर् हुआ क्यूँ ? 

स्त्रियाँ तो हमेशा से मेधावी थीं, शारीरिक,मानसिक रूप से अलौकिक - साम,दाम,दंड, भेद का रहस्य उन्हें भी पता था, धरती को नापने की क्षमता उनके पास भी थी  ...  पहले तो दसवीं पास लड़कियाँ विलक्षण होती थीं, स्नातक होना तो स्वर्ण पदक होने सा था।  
फिर अचानक, इस शोर का क्या अर्थ ? - बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, उन्हें आत्मनिर्भर बनाओ  .... ! यह गुहार किससे ? अपनेआप से ? सीता का उदाहरण देते न थकनेवाले पूर्वज क्यूँ उनकी अग्नि परीक्षा लेने लगे ? उसे घूरे में फेंकने लगे ? उसे आत्मनिर्भर बनाकर उसके पैसे का हिसाब किताब करने लगे ?  ... क्या यह बेटियों का दोष था ? - नहीं न ? फिर जिनका दोष हुआ, उन्हें फेंकिए, भरे बाजार में हिम्मत हो तो उनकी अग्नि परीक्षा लीजिये, अपनी रोटियों का मूल्य लेनेवालों को मूल्य देना सिखाइये और जरा पीछे की ओर दृष्टि घुमाइए - स्त्रियाँ प्राचीनकाल से उदाहरण थीं !

मीरा बाई जन्म: 1498, मृत्यु: 1547 एक मध्यकालीन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और कृष्ण भक्त थीं। वे भक्ति आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय भक्ति-संतों में एक थीं। भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं और श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। मीरा का जन्म राजस्थान के एक राजघराने में हुआ था। मीरा बाई के जीवन के बारे में तमाम पौराणिक कथाएँ और किवदंतियां प्रचलित हैं। ये सभी किवदंतियां मीराबाई के बहादुरी की कहानियां कहती हैं और उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति को दर्शाती हैं। इनके माध्यम से यह भी पता चलता है की किस प्रकार से मीराबाई ने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूरों का बहादुरी से मुकाबला किया और कृष्ण को अपना पति मानकर उनकी भक्ति में लीन हो गयीं। उनके ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति को राजघराने के अनुकूल नहीं माना और समय-समय पर उनपर अत्याचार किये।
मीरा का विवाह राणा सांगा के पुत्र और मेवाड़ के राजकुमार भोज राज के साथ सन 1516 में संपन्न हुआ। उनके पति भोज राज दिल्ली सल्तनत के शाशकों के साथ एक संघर्ष में सन 1518 में घायल हो गए और इसी कारण सन 1521 में उनकी मृत्यु हो गयी। उनके पति के मृत्यु के कुछ वर्षों के अन्दर ही उनके पिता और श्वसुर भी मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के साथ युद्ध में मारे गए।
ऐसा कहा जाता है कि उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु के बाद मीरा को उनके पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु वे इसके लिए तैयार नही हुईं और धीरे-धीरे वे संसार से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं।



सरोजिनी नायडू , जन्म- 13 फ़रवरी, 1879, हैदराबाद; मृत्यु- 2 मार्च, 1949, इलाहाबाद) सुप्रसिद्ध कवयित्री और भारत देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में सदैव आगे रहीं। 

'श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण 
हो चुका जागरण 
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।'

ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से है, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी।

सरोजिनी नायडु पहली भारतीय महिला कॉग्रेस अध्यक्ष और ‘भारत की कोकिला’ - इस विशेष नाम से पहचानी जाती है, क्योंकि इन्होंने एक राष्ट्रिय नेता के रूप में भाग लेने के साथ-साथ काव्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 
१९४७ में स्वतंत्र भारत में के उत्तर प्रदेश के पहली राज्यपाल के रूप में उन्हें चुना गया।

महादेवी वर्मा (26 मार्च, 1907 – 11 सितंबर, 1987) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं।आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया।
उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल बृजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया। संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परंतु उन्होंने अविवाहित की भांति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भांति प्रकाशमान है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। 

अमृता प्रीतम  जन्म: 31 अगस्त, 1919, पंजाब (पाकिस्तान); मृत्यु: 31 अक्टूबर, 2005 दिल्ली) प्रसिद्ध कवयित्री, उपन्यासकार और निबंधकार थीं, जिन्हें 20वीं सदी की पंजाबी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री माना जाता है। इनकी लोकप्रियता सीमा पार पाकिस्तान में भी बराबर है। इन्होंने पंजाबी जगत् में छ: दशकों तक राज किया। अमृता प्रीतम ने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं, जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान 'पद्म विभूषण' भी प्राप्त हुआ। उन्हें 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।
अमृता एक दौर में आजाद ख्याल लड़कियों का रोल मॉडल रही हैं 


मैत्रेयी पुष्पा जन्म- 30 नवम्बर, 1944, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश) हिंदी की प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। उन्हें हिन्दी अकादमी, दिल्ली की उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है। मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी लेखनी में ग्रामीण भारत को साकार किया है। उनके लेखन में ब्रज और बुंदेल दोनों संस्कृतियों की झलक दिखाई देती है। मैत्रेयी पुष्पा को रांगेय राघव और फणीश्वर नाथ 'रेणु' की श्रेणी की रचनाकार माना जाता है।

सरोजनी प्रीतम हिन्दी साहित्य की आधुनिक महिला साहित्यकार और लेखक हैं। व्‍यंग्य से हिन्दी साहित्य जगत को समृद्ध करने वाली सरोजनी जी 'हंसिकाएँ' नाम की एक नई विधा की जन्मदात्री हैं। उन्हें नारी वेदना की सजीव अभिव्यक्ति के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है। हिन्दी साहित्य की अध्येता रहीं सरोजनी प्रीतम ने पहली रचना महज मात्र 11 साल की उम्र में प्रकृति को कथ्य मानकर लिखी थी। उनके लेखन में गद्य एवं पद्य दोनों में समान अधिकार से व्यंग्य एवं वेदना व्यक्त हुई है। सरोजनी जी ने अपनी 'हंसिकाओं' से दुनिया भर के श्रोताओं को प्रभावित किया है। उनकी हंसिकाओं का अनुवाद नेपाली, गुजराती, सिंधी और पंजाबी सहित कई भारतीय भाषाओं में हो चुका है।

रानी लक्ष्मीबाई (जन्म: 19 नवम्बर 1835 – मृत्यु: 18 जून 1858) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना थीं। उन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में अंग्रेज़ साम्राज्य की सेना से संग्राम किया और रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की किन्तु जीते जी अंग्रेजों को अपनी झाँसी पर कब्जा नहीं करने दिया।

राजकुमारी यशोधरा (563 ईसा पूर्व - 483 ईसा पूर्व) राजा सुप्पबुद्ध और उनकी पत्नी पमिता की पुत्री थीं। यशोधरा की माता- पमिता राजा शुद्धोदन की बहन थीं। १६ वर्ष की आयु में यशोधरा का विवाह राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ गौतम के साथ हुआ। बाद में सिद्धार्थ गौतम संन्यासी हुए और गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए। यशोधरा ने २९ वर्ष की आयु में एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम राहुल था। अपने पति गौतम बुद्ध के संन्यासी हो जाने के बाद यशोधरा ने अपने बेटे का पालन पोषण करते हुए एक संत का जीवन अपना लिया। उन्होंने मूल्यवान वस्त्राभूषण का त्याग कर दिया। पीला वस्त्र पहना और दिन में एक बार भोजन किया। जब उनके पुत्र राहुल ने भी संन्यास अपनाया तब वे भी संन्यासिनि हो गईं। उनका देहावसान ७८ वर्ष की आयु में गौतम बुद्ध के निर्वाण से २ वर्ष पहले हुआ।
यशोधरा के जीवन पर आधारित बहुत सी रचनाएँ हुई हैं, जिनमें मैथिलीशरण गुप्त की रचना यशोधरा (काव्य) बहुत प्रसिद्ध है।

सीता रामायण और रामकथा पर आधारित अन्य रामायण ग्रंथ, जैसे रामचरितमानस, की मुख्य पात्र है। सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थी। इनका विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम से स्वयंवर में शिवधनुष को भंग करने के उपरांत हुआ था। इनकी स्त्री व पतिव्रता धर्म के कारण इनका नाम आदर से लिया जाता है| त्रेतायुग में इन्हे सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार मानते है।

द्रौपदी महाभारत के सबसे प्रसिद्ध पात्रों में से एक है। इस महाकाव्य के अनुसार द्रौपदी पांचाल देश के राजा द्रुपद की पुत्री है जो बाद में पांचों पाण्डवों की पत्नी बनी। द्रौपदी पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। ये कृष्णा, यज्ञसेनी, महाभारती, सैरंध्री अदि अन्य नामो से भी विख्यात है।द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव भाईयों से हुआ था। पांडवों द्वारा इनसे जन्मे पांच पुत्र (क्रमशः प्रतिविंध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ती, शतानीक व श्रुतकर्मा) उप-पांडव नाम से विख्यात थे।


इन्दिरा प्रियदर्शिनी गाँधी  (19 नवंबर 1917-31 अक्टूबर 1984) वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार 3 पारी के लिए भारत गणराज्य की प्रधानमन्त्री रहीं और उसके बाद चौथी पारी में 1980 से लेकर 1984 में उनकी राजनैतिक हत्या तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। वे भारत की प्रथम और अब तक एकमात्र महिला प्रधानमंत्री रहीं।

मेनका गांधी (२६ अगस्त १९५६ --) भारत की प्रसिद्ध राजनेत्री एवं पशु-अधिकारवादी हैं। पूर्व में वे पत्रकार भी रह चुकी हैं। किन्तु भारत की महिला प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी के छोटे पुत्र स्व॰ संजय गांधी की पत्नी के रूप में वे अधिक विख्यात हैं। उन्होने अनेकों पुस्तकों की रचना की है तथा उनके लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः आते रहते हैं। वे वर्तमान में भारत की महिला एवं बाल विकास मंत्री हैं।

पी. टी. उषा पूरा नाम पिलावुळ्ळकण्टि तेक्केपरम्पिल् उषा) भारत के केरल राज्य की खिलाड़ी हैं। 1976 में केरल राज्य सरकार ने महिलाओं के लिए एक खेल विद्यालय खोला और उषा को अपने ज़िले का प्रतिनिधि चुना गया। भारतीय ट्रैक ऍण्ड फ़ील्ड की रानी माने जानी वाली पी. टी. उषा भारतीय खेलकूद में 1979 से हैं। वे भारत के अब तक के सबसे अच्छे खिलाड़ियों में से हैं। नवें दशक में जो सफलताएँ और ख्याति पी. टी. उषा ने प्राप्त की हैं वे उनसे पूर्व कोई भी भारतीय महिला एथलीट नहीं प्राप्त कर सकी। वर्तमान में वे एशिया की सर्वश्रेष्ठ महिला एथलीट मानी जाती हैं। पी. टी. उषा को उड़न परी भी कहा जाता है।

सुधा चन्द्रन 

सुधा चन्द्रन हिन्दी फ़िल्मों की एक अभिनेत्री हैं।मशहूर भरतनाट्यम नृत्यांगना और अभिनेत्री सुधा चंद्रन ने अपनी सफलता की गाथा एक पैर से लिखी है।1981 में एक हादसे के बाद 16 साल की उम्र में उनका दाहिना पैर काटना पड़ा था, तब भी उन्होंने हौसला नहीं खोया। जयपुर फुट के कृत्रिम पैर के सहारे उन्होंने दोबारा भरतनाट्यम किया । उनके नृत्य को देखकर किसी को अहसास नहीं हुआ कि उनका एक पैर कृत्रिम है।


मैत्रेयी, शकुंतला, सीता, अनुसूया, दमयंती, सावित्री, गार्गी आदि स्त्रियाँ ज्वलंत उदाहरण हैं। 

हिंदी फ़िल्मी क्षेत्र में भी कई प्रतिष्ठित नाम हैं - 

नरगिस दत्त, मीनाकुमारी, नूतन, वहीदा रेहमान, शर्मिला टैगोर, हेमामालिनी, जया बच्चन, सुष्मिता सेन, ऐश्वर्या रॉय, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल,  ... जिन्होंने अपने सशक्त पदचिन्ह बनाये हैं। 
उदाहरण हैं वे अलिखित स्त्रियाँ जो समयानुसार दुर्गा, अन्नपूर्णा, बन, मातृत्व के कर्तव्यों को निभाती हैं और समय की मांग पर अंगारों पर दौड़ जाती हैं। 

इन उद्धृत नामों से इतर स्त्रियाँ स्वयं अपने अंदर झांककर देखें, - वह कौन सा प्रकाश है, जो उनके भीतर नहीं ? और दिल पर हाथ रखकर कहिये, 
क्या आप उदाहरण नहीं ?

02 मार्च, 2019

साथ की अहमियत



जब तुम
तुम्हारा मन
तुम्हारा दिमाग
झंझावातों के मध्य रास्ता ढूंढता है,
जब तुम्हारी ही ज़रूरत सबको होती है,
तो धरती का ज़र्रा ज़र्रा तुम्हारे साथ होता है,
उस रास्ते के व्यवधान को
मिटाने की दुआएं लिए,
एक संवेदनशील वर्ग होता है,
तुम पर कोई आंच न आये,
इसके लिए जो साम दाम दंड भेद का
मार्ग अपनाता है,
उसे तुम कभी अनदेखा,
अनसुना मत करो ।
क्रिकेट का मैच हो
या ज़िन्दगी का मैच,
उस समय खिलाड़ी ही उतरता है मैदान में
और उसकी जीत
हमारी जीत होती है,
उसकी हार,
हमारी हार ...!
कोई और बल्ला नहीं उठाता,
ना ही कैच लेता है,
लेकिन थरथराती साँसों के संग
सब उसी पर नज़रें टिकाए रहते हैं ।
कुछ भी कहनेवाला
न कभी सही था,
ना होगा
पर साथ चलनेवाला
हमेशा सही होता है ।

24 फ़रवरी, 2019

ज़िन्दगी ही है













कहने को तो खेल है,
पर सबके मायने हैं !

कितकित  ... एक पैर पर छोटे से दायरे को
कूद कूदकर पार करना,
कहीं क्षणिक विराम के लिए
दोनों पाँव रखना,
फिर बढ़ना  ... ज़िन्दगी ही है !

रुमाल चोर  ...
मस्तिष्क को जाग्रत रखना,
दृष्टि को गिद्ध दृष्टि बनाना,
पीछे से दौड़ते हुए
कौन कब मुज़रिम बना दे,
कौन जाने !  ... ज़िन्दगी ही है !

लुक्काछुप्पी  ...
किसी का छुप जाना,
किसी की खोज  ... ज़िन्दगी ही है !

रस्सी कूद  ...
बाधाओं को पार करना,
धरती से रिश्ता बनाये रखना  ... ज़िन्दगी ही है !

शतरंज  ...
हर मोहरे का दिन होता है,
सोची-समझी चाल चलने के बाद भी,
बादशाह का घिर जाना,
मात खाना   ... ज़िन्दगी ही है !

लूडो  ...
समयानुसार एक से छः अंकों की ज़रूरत,
आखिरी पड़ाव पर गोटी का कट जाना,
फिर से शुरुआत करना,
... ज़िन्दगी ही है !

पतंग  ...
उड़ान उड़ान उड़ान
माझे की सधी हुई पकड़,
दूसरे से आगे जाने के लिए,
जीत के लिए.
दूसरे की डोर काटना  ... ज़िन्दगी ही है !

कागज़ की नाव बनाना,
पानी में उसे उतारना,
यही संदेश देता है,
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती  ...
बचपन में खेला गया यह खेल,
... ज़िन्दगी ही है !

रस्साकस्सी, गोली,गोटी, पिट्टो, लट्टू, चोर सिपाही ...
इन सारे मासूम खेलों में
ज़िन्दगी है !!!



एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...