30 दिसंबर, 2012

उसके नाम - शुभकामनायें- :(



नया साल तुम्हारी जिजीविषा को 
विजिगीषा बनाये 
तुम्हारी रगों में वो सारी शक्तियां दौड़ें 
जो दुर्गा की रचना में 
सभी देवताओं ने दी थी 
चंड मुंड शुम्भ निशुम्भ 
महिषासुर जैसे असुरों का सर्वनाश तुम स्वयं करो 
आदिशक्ति का संचार खुद महादेव ने किया है 
तुम्हारी स्वाभाविक स्थिति का भान 
तुम्हें ही करवाने के लिए 
उन्होंने खुद को भी दुःख दिया 
उस दुःख का मोल चुकाओ 
अपनी सामर्थ्य का हर शस्त्र उठाओ 
........... 
सीता,अहिल्या बनने का युग नहीं 
ना ही खुद को शापित अनुभव करने का युग है 
इंतज़ार करना कमजोरी है 
एक एक चिंगारी तुम्हारे अन्दर है 
धधको,भभको 
हर घृणित अपराधी को 
गलाओ,सुखाओ ........ जला डालो 
अपने स्वत्व का अभिषेक खुद करो 
'बेटी' होने की गरिमा को 
महिमामंडित करो 
...........
और हर वर्ष गर्व से कहो 
'यह नया वर्ष मेरा है 
मेरी माँ का है 
मेरे पिता का है 
मेरे भाई का है 
मेरे अपनों का है ' 
नया वर्ष स्वतः उनलोगों के सर पर हाथ रखेगा 
जो यकीनन इन संबंधों के घेरे में आते हैं .......

नया वर्ष आजीवन सत्य का हो 
न्यायिक हो 
सफल हो 
शिव हो सुन्दर हो 
विघ्नहर्ता के क़दमों से इसका आरम्भ हो 
- शुभकामनायें- :(

22 दिसंबर, 2012

दामिनी - अरुणा .... कौन कौन !!!


यह दामिनी है 
वह अरुणा थी 
तब भी एक शोर था 
आज भी शोर है ......... 
क्यूँ ? क्यूँ ? क्यूँ ?
............. 

शोर की ज़रूरत ही नहीं है 
नहीं है ज़रूरत कौन कब कहाँ जैसे प्रश्नों की 
क्यूँ चेहरा ढंका .... ???????
कौन देगा जवाब ?
जवाब बन जाओ 
हुंकार बन जाओ 
हवा का झोंका बन जाओ 
उदाहरणों से धरती भरी है
उदहारण बन जाओ  .........

पुरुषत्व है स्त्री की रक्षा 
जो नहीं कर सकता 
वह तो जग जाहिर नपुंसक है !
बहिष्कृत है हर वो शक्स 
जो शब्द शब्द की नोक लिए 
दर्द के सन्नाटे में ठहाके लगाता है 
उघरे बखिये की तरह घटना का ज़िक्र करता है 
फिर एक पैबंद लगा देता है 
च्च्च्च्च की !

याद रखो -
यह माँ की हत्या है 
बेटी की हत्या है 
बहन की हत्या है 
पत्नी की हत्या है 
............... कुत्सित विकृत चेहरों को शमशान तक घसीटना सुकर्म है 
जिंदा जलाना न्यायिक अर्चना है 
दामिनी की आँखों के आगे राख हुए जिस्मों को 
जमीन पर बिखेरना मुक्ति है ...........
...........
इंतज़ार - बेवजह - किसका ?
और क्यूँ?
ईश्वर ने हर बार मौका दिया है 
बन जाओ अग्नि 
कर दो भस्म 
उन तमाम विकृतियों को 
जिसके उत्तरदायी न होकर भी 
तुम होते हो उत्तरदायी !
......
ढंके चेहरों को आगे बढकर खोल दो 
नोच डालो दरिन्दे का चेहरा 
या फिर एक संकल्प लो 
- खुद का चेहरा भी नहीं देखोगे 
तब तक .... जब तक दरिन्दे झुलस ना जायें 
उससे पहले  
जब जब देखोगे अपना चेहरा 
अपनी ही सोच की अदालत में 
पाप के भागीदार बनोगे 
......... 
जीवित लाशों की ढेर से दहशत नहीं होती तुम्हें ?
मुस्कुराते हुए 
अपनी बेटी को आशीर्वाद देते 
तुम्हारी रूह नहीं कांपती - कि 
कल किसके घर की दामिनी होगी 
किसके घर की अरुणा शानबाग 
और इस ढेर में कोई पहचान नहीं रह जाएगी !!!
.......

18 दिसंबर, 2012

कन्या भ्रूण हत्या मजबूरी है !!!:( - (अपवाद होते हैं)


सिसकियों ने
मेरा जीना दूभर कर दिया है 

माँ रेsssssssssssssss ............

मैं सो नहीं पाती 
आखों के आगे आती है वह लड़की 
जिसके चेहरे पर थी एक दो दिन में माँ बनने की ख़ुशी 
और लगातार होठों पर ये लफ्ज़ -
'कहीं बेटी ना हो ....!'
मैं कहती - क्या होगा बेटा हो या बेटी 
!!!
अंततः उसने बेरुखी से कहा -
आप तो कहेंगी ही 
आपको बेटा जो है ....'
मेरी उसकी उम्र में बहुत फर्क नहीं था 
पर मेरे होठों पर ममता भरी मुस्कान उभरी - बुद्धू ...
!!!

आज अपनी ज़िन्दगी जीकर 
माओं की फूटती सिसकियों में मैंने कन्या भ्रूण हत्या का मर्म जाना 
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
नहीं फर्क पड़ता शिक्षा से 
कमाने से 
लड़कियों के जन्म पर उपेक्षित स्वर सुनने को मिलते ही हैं 
उन्हें वंश मानना किसी को गवारा नहीं 
वे असुरक्षित थीं - हैं ....
ससुराल में किसके क़दमों के नीचे अंगारे होंगे 
किसके क़दमों के नीचे फूल - खुदा भी नहीं जानता 
.... रात का अँधेरा हो 
या भरी दोपहरी 
कब लड़की गुमनामी के घुटने में सर छुपा लेगी 
कोई नहीं जानता 
नहीं छुपाया तो प्रताड़ित शब्द 
रहने सहने के ऊपर तीखे व्यंग्य बाण 
जीते जी मार ही देते हैं 
तो गर्भ में ही कर देती है माँ उसे खत्म !!!
= नहीं देना चाहती उसे खुद सी ज़िन्दगी 
गुड़िया सी बेटी की ज़िन्दगी 
खैरात की साँसें बन जाएँ - माँ नहीं चाहती 
तो बुत बनी मान लेती है घरवालों की बात 
या खुद निर्णय ले लेती है 
.........
कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ़ बोलने से क्या होगा 
कन्या रहेगी बेघर ही 
या फिर करने लगेगी संहार 
......
आन्दोलन करने से पहले अपने विचारों में बदलाव लाओ 
जो सम्भव नहीं - 
तो खुद को विराम दो 
और सुनो उन सिसकियों को 
जिन्होंने इस जघन्य अपराध से 
आगे की हर दुह्संभावनाओं के मार्ग बंद कर दिए 
सीता जन्म लेकर धरती में जाये 
उससे पहले बेनाम कर दिया उन्हें गर्भ में ही 
....
आओ आज मन से उन माओं के आगे शीश झुकाएं 
एक पल का मौन उनके आँचल में रख जाएँ 
.................. :(

11 दिसंबर, 2012

कुछ तो है ...



मैं न यशोदा न देवकी 
मैं न राधा न रुक्मिणी न मीरा 
नहीं मैं सुदामा न कृष्ण न राम 
न अहिल्या न उर्मिला न सावित्री 
.......... मैं कर्ण भी नहीं 
नहीं किसी की सारथी 
न पितामह न एकलव्य न बुद्ध 
नहीं हूँ प्रहलाद ना गंगा न भगीरथ 
पर इनके स्पर्श से बनी मैं कुछ तो हूँ 
नहीं - 
तो फिर क्यूँ लहराता है बोलता हुआ मौन मेरे भीतर 
क्यूँ मैं कुम्हार की तरह अपनी ही मिटटी से 
हर दिन ये सारे मूरत गढ़ती हूँ 
क्यूँ मेरे भीतर ॐ की ध्वनि गूंजती है 
अजान के स्वर निःसृत होते हैं 
क्यूँ मैं अहर्निश अखंड दीप सी प्रोज्ज्वलित हूँ 
क्यूँ .............. एक पदचाप मेरे साथ होती है 
क्यूँ एक परछाईं मुझमें तरंगित होती है 
..........
मैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है 
पर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति 
खुद को - कहीं भी कभी भी 
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???

16 नवंबर, 2012

(कुछ देर के लिए ही सही)


एक गलती 
सौ प्यार 
प्यार भूलकर 
गलती की ताउम्र सज़ा ...
कोई निष्ठुरता से ऐसा न्याय कैसे कर सकता है !

प्यार में तो उस अनुपात से लेन देन नहीं करते 
फिर एक गलती में 
विशेष शब्द वाणों का 
भाव भंगिमाओं का प्रयोग क्यूँ !

राम को कैकेयी ने वनवास भेजा 
दशरथ की मृत्यु हो गई 
..... पर राम ने कैकेयी की अवहेलना नहीं की 
यह सच भी प्रबल है  
कि कैकेयी ने राम को बहुत प्यार दिया 
बिना किसी भेदभाव के ...

बात सिर्फ क्षणांश की है 
क्षणांश के लिए 
मति किसकी नहीं मारी जाती 
कैकेयी का मन भी असुरक्षित भाव लिए 
मंथरा बन बैठा 
दशरथ को बचानेवाली कैकेयी 
दशरथ का काल बन गई 
भरत ने धिक्कारा 
पूरी अयोध्या ने धिक्कारा 
पर राम ने भरी सभा में उन्हें सम्मान दिया 
कौशल्या से पूर्व उनके पांव छुए 
......
कौशल्या भी तो हैरान ही थीं 
कैकेयी की मांग सुनकर ...
 पुत्रवियोग,पतिशोक में होकर भी 
उन्होंने कैकेयी के प्रेम को नहीं नकारा 
राम ने पहले कैकयी को प्रणाम किया 
इसका उन्हें तनिक भी क्लेश नहीं हुआ 
.... 
कान खींचने से 
क्षणिक आवेश में माँ के यह कहने से 
कि 'मर जा तू'
माँ बुरी नहीं होती 
न उसका कहा श्राप होता है 
फिर उससे परे स्नेहिल सम्बन्ध 
शक के घेरे में कैसे घिर जाते हैं ?!
....
यह प्रश्न विचारणीय है 
युवाओं के लिए,
बुजुर्गों के लिए 
कि एक क्षण में सारी लकीरों को मटियामेट कर देना 
न सही निर्णय है,न उचित संस्कार !
...........
वक़्त का रोना 
अकेलेपन का रोना लेकर बैठने से बेहतर है 
हम चिंतन करें 
आत्मचिंतन में ही रास्ते हैं 
और इन्हीं रास्तों में सुकून (कुछ देर के लिए ही सही)

15 नवंबर, 2012

ग़लतफ़हमी ना हो :)

मेरा नेट बहुत स्लो है :( .... देखते रहो .... 
तो पढ़ना -लिखना कठिन है .मैं कामयाब कोशिश में रहूंगी,इत्तिला कर दूँ ताकि ग़लतफ़हमी ना हो :) इसी सूचना में एक घंटे से लगी हुई हूँ 

12 नवंबर, 2012

एक वसीयत (बच्चों के नाम)



बहुत सोचा - बहुत 
एक वसीयत लिख दूँ अपने बच्चों के नाम ...
घर के हर कोने देखे 
छोटी छोटी सारी पोटलियाँ खोल डालीं 
आलमीरे में शोभायमान लॉकर भी खोला 
....... अपनी अमीरी पर मुस्कुराई !
छोटे छोटे कागज़ के कई टुकड़े मिले 
गले लगकर कहते हुए - सॉरी माँ,लास्ट गलती है 
अब नहीं दुहराएंगे ... हंस दो माँ '
अपनी खिलखिलाहट सुनाई दी ...
ओह ! यानी बहुत सारी हंसी भी है मेरी संपत्ति में !
आलमीरे में अपना काव्य-संग्रह 
जीवन का सजिल्द रूप ...
आँख मटकाती बार्बी डौल 
छोटी कार - जिसे देखकर ये बच्चे 
चाभी भरे खिलौने हो जाते थे 
चलनेवाला रोबोट 
संभाल कर रखी डायरी 
जिसमें कुछ भी लिखकर 
ये बच्चे आराम की नींद सो जाते थे ...
मैंने ही बताया था 
डायरी से बढकर कोई मित्र नहीं 
..... हाँ वह किसी के हाथ न आये 
और इसके लिए मैं हूँ न तिजोरी '
पहली क्लास से नौवीं क्लास तक के रिपोर्ट कार्ड 
(दसवीं,बारहवीं के तो उनकी फ़ाइल में बंध गए)
पहला कपड़ा,पहला स्वेटर 
बैट,बौल ... डांट - फटकार 
एक ही बात - 
जो कहती हूँ ... तुमलोगों के भले के लिए 
मेरा क्या है !
अरे मेरी ख़ुशी तो ....'
मुझे घेरकर 
सर नीचे करके वे ऐसा चेहरा बनाते 
कि मुझे हंसी आने लगती 
उनके चेहरे पर भी मुस्कान की एक लम्बी रेखा बनती ...
मैं हंसती हुई कहती -
सुनो,मेरी हंसी पर मत जाओ 
मैं नाराज़ हूँ ... बहुत नाराज़ '
ठठाकर वे हँसते और सारी बात खत्म !
ये सारे एहसास भी मैंने संजो रखे हैं 
....
बेवजह कितना कुछ बोली हूँ 
आजिज होकर कान पकड़े हैं 
फिर बेचैनी में रात भर सर सहलाया है ..
मारने को कभी हाथ उठाया 
तो मुझे ही चोट लगी 
उंगलियाँ सूज गयीं 
.... उसे भी मन के बक्से में रखा है ....
....
वक़्त गुजरता गया - वे कड़ी धूप में निकल गए समय से 
आँचल में मैंने कुछ छांह रख लिए बाँध के 
ताकि मौका पाते उभर आये स्वेद कणों को पोछ सकूँ ...
... 
आज भी गए रात जागती हुई 
मैं उनसे कुछ कुछ कहती रहती हूँ 
उनके जवाब की प्रतीक्षा नहीं 
क्योंकि मुझे सब पता है !
घंटों बातचीत करके भी 
कुछ अनकहा रह ही जाता है 
.....मैंने उन अनकही बातों को भी सहेज दिया है 
............
आप सब आश्चर्य में होंगे 
- आर्थिक वसीयत तो है ही नहीं !!!
ह्म्म्मम्म - वो मेरे पास नहीं है ...
बस एहसास हैं मासूम मासूम से 
जो पैसे से बढ़कर हैं -
थकने पर इनकी ज़रूरत पड़ती है 
बच्चों को मैं जानती हूँ न 
शाम होते मैं उन्हें याद आती हूँ 
तकिये पर सर रखते सर सहलाती मेरी उंगलियाँ 
.... उनके हर प्रश्नों का जवाब हूँ मैं 
तो सारे जवाब मैंने वसीयत में लिख दिए हैं 
- बराबर बराबर ........

07 नवंबर, 2012

ना मैं बुद्ध हूँ ना वे अंगुलिमाल


मैं सच में बुरी हूँ 
बुरे लोगों में हिम्मत नहीं होती 
धडल्ले से गालियाँ देने की !
अनुमानित सोच पर 
किसी की इज्ज़त का जनाजा निकालने की !

अच्छे, संस्कारी लोग 
अनुमानित आधार पर 
कभी भी,कहीं भी 
कुछ भी कहने का अधिकार रखते हैं 
कुछ भी खुलासा करते हैं ...
वे पूरे दिन 
कभी कभी रात में भी 
पुलिस का धर्म 
कानून का धर्म निभाते हैं !
कौन क्या है 
- इसका पूरा लेखा-जोखा 
इन अच्छे लोगों के पास होता है !

बिना राम नाम सत्य बताये 
ये सम्मान की अर्थी निकाल देते हैं 
हर उस दरवाज़े पर भीड़ लगी होती है 
जो जनाजे के इंतज़ार में होते हैं 
- एक वक्र मुस्कान 
इनकी पुश्तैनी सम्पत्ति है 
फिर भी दरियादिली से ये अर्पित करते हैं ...
......

मेरे पास इतनी गैरत कहाँ 
न आंसू बहाती हूँ 
न जख्मों को दिखाती हूँ 
कम्माल की बुरी हूँ न 
गलती नहीं हो तो भी क्षमा मांग लेती हूँ 
शुभकामनायें देती हूँ 
ओखल में सर देकर कहती हूँ मुसल से 
.... आशीषों के सिवा कुछ भी नहीं मेरे पास 
..........
पर ,,,,,,,,,,,,,
ना मैं बुद्ध हूँ 
ना वे अंगुलिमाल 
.....
वे तो बस अच्छे हैं 
और मैं बुरी !!!

03 नवंबर, 2012

अंगारों पर चलना प्रभु का आशीष है



ज़िन्दगी से हार कैसी !
वह तो सारे प्रश्नों के हल 
जीने के सारे तरीके 
पहले ही बता देती है ... !!!
जन्म के साथ रुदन ना हो 
माँ को मृत्यु की चौखट ना दिखे 
फिर बच्चे की रुलाई में 
संजीवनी का एहसास मुमकिन नहीं 
संजीवनी के बिना 
जीवन का आरम्भ ही नहीं !

जीने के लिए 
मारना,पीटना,
काटना,कटना,
छिलके उतारना,
धोना, पिसना  
अंगारों पर चढ़ना 
मूल मंत्र है ....
जीवन पेट की भूख है 
भूख को शांत करो 
तो ही जीवन है 
और खाने के लिए 
अनाज,फल .... सबको 
एक प्रक्रिया से गुजरनी पड़ती है 
कहाँ आंच तेज होनी चाहिए 
कहाँ कम - 
ध्यान रखना पड़ता है ... 
खाने का स्वाद हम तय कर लेते हैं 
तो हमारे लिए 
ईश्वर,माता-पिता,गुरु,समयचक्र 
...इसे तय करते हैं 
छालों से यदि डर गए
थक गए 
खून देखकर सहम गए 
तो हम क्या अर्थ पाएंगे !

जीवन का एक सुनियोजित अर्थ है 
जिसे पाने के लिए 
सम्बन्ध जुड़ते हैं 
तो टूटते भी हैं 
जन्म लेते हैं तो मरते भी हैं ...

भ्रष्टाचार से पैसे पाना आसान है 
पर नाम वही अर्थ पाते हैं 
क़दमों के निशाँ वही अनुकरणीय होते हैं 
जो खुद को साधते हैं 
तपते हैं ....
तर्कसंगत विद्वता की बातें 
जितनी भी कर लें हम 
पर इस सच से इन्कार कौन करेगा 
कि हम अपने बच्चों के नाम में 
इन्हीं कर्मों से एहतियात बरतते हैं 
राम,सीता,एकलव्य,कर्ण,कल्याणी,....
जैसे नाम रखते हैं 
रावण ,शूर्पनखा ... जैसे नाम नहीं 
आग लगाना,
अंगारों पर चलना 
दो उपक्रम हैं 
... अंगारों पर चलना प्रभु का आशीष है 

01 नवंबर, 2012

कई बीघे जमीन की स्वामिनी




रात दिन बच्चों के भविष्य को 
स्वेटर के फंदों सी बुननेवाली माँ 
जब बच्चों से कुछ सीखती है 
अपने नाम का कोई फंदा उनकी सलाई पर देखती है 
तो काँपता शरीर गर्मी पा 
स्थिर हो लेता है 
और माँ कई बीघे जमीन की स्वामिनी हो जाती है ...

बच्चे जब घुड़कते हैं  
हिदायतें देते हैं 
तो माँ का बचपन लौट आता है 
सफ़ेद बालों का सौंदर्य अप्रतिम हो उठता है ...
....
एकमात्र संबोधन - 'माँssss' .......
लाल परी की छड़ी सा होता है 
पुकारो ना पुकारो 
माँ सुन ही लेती है ...
उसकी हर धड़कन 
इस पुकार का महाग्रंथ होती है 
जिसके हर पन्नों पर 
दुआओं के बोल होते हैं ...
काला टीका 
रक्षा मंत्र के रूप में 
माँ प्राकृतिक अँधेरों के आँचल से 
हंसकर चुरा लेती है !
ऐसी छोटी छोटी चोरियां 
बच्चे के एक सच के लिए सौ झूठ बोलना 
माँ के अधिकार क्षेत्र में आता है 
बच्चे पर आनेवाले दुःख को 
जादू से आँचल में बांधना 
माँ को बखूबी आता है 
अमरनाथ गुफा सी क्षमता 
माँ के प्यार में होती है ...

उसी माँ के लिए 
बच्चे जब गुफा बन जाते हैं 
तो शरद पूर्णिमा की चांदनी 
माँ का सर सहलाती है 
जागी हुई आँखों में भी 
कोई थकान नहीं होती 
माँ ....
वह उस गुफा में 
नन्हीं सी गिलहरी बन जाती है 
बच्चों का प्यार
मजबूत टहनियों की तरह 
माँ का ख्याल रखते हैं 
ऊन के फंदों की तरह 
माँ का सुख बुनते हैं 
अपनी अपनी सलाइयों पर 
और माँ -
बोरसी सी गर्माहट लिए 
अपने बुने स्वेटरों की सुंगंध में 
निहाल हो खेलती है 
नए ऊन के रंगों के संग 
नए सिरे से ....

29 अक्टूबर, 2012

अपमान से सम्मान का तेज बढ़ता है


सम्मान का अपमान नहीं हो सकता 
गरिमा धूमिल नहीं की जा सकती 
जो मर्यादित है 
उसे गाली देकर भी 
अमर्यादित नहीं किया जा सकता ...
शमशान में कर मांगते 
राजा हरिश्चंद्र की सत्य निष्ठा नहीं बदली 
पुत्रशोक,पत्नी विवशता के आगे भी 
हरिश्चंद्र अडिग रहे 
भिक्षाटन करते हुए 
बुद्ध का ज्ञान बाधित नहीं हुआ 
....
अपमान से सम्मान का तेज बढ़ता है 
अमर्यादित लकीरों के आगे 
मर्यादा का अस्तित्व निखरता है 
विघ्न बाधाओं के मध्य 
सत्य और प्राप्य का गौरव प्रतिष्ठित होता है 
...
उन्हीं जड़ों को पूरी ताकत से हिलाया जाता है 
जिसकी पकड़ पृथ्वी की गहराई तक होती है 
और दूर तक फैली होती है ...
पीड़ा होना सहज है 
पर पीड़ा में भय !!!
कदाचित नहीं ...
मजबूत जड़ें प्रभु की हथेलियों पर टिकी होती हैं 
और .... 
स्मरण रहे 
सागर से एक मटकी पानी निकाल लेने से 
सागर खाली नहीं होता !
हाँ खारापन उसका दर्द है 
क्योंकि अमानवीय व्यवहार से 
दर्द की लहरें उठती हैं 
बहा ले जाने के उपक्रम में 
निरंतर हाहाकार करती हैं 
....
पर प्रभु की लीला -
उन लहरों में भी अद्भुत सौन्दर्य होता है 
दर्द की गहराई में जो उतर गया 
वह मोती को पा ही लेता है !

27 अक्टूबर, 2012

निजी क्या है ?निजित्व क्या है ?



निजी क्या है ?
घड़ी की टिक टिक की तरह यह प्रश्न 
मंथन संधान कर रहा ...
उजाले से अन्धकार 
अन्धकार में जुगनू 
घुप्प अन्धकार
सफ़ेद प्रकाश .... निजित्व क्या है ?

प्रेम निजित्व है
संबंध निजित्व है 
पर यदि वह है सरेआम 
तो गलत है 
अश्लील है 
निजी नहीं  !

अहिंसा निजित्व है 
अहिंसा की लक्ष्मण रेखा बनाने के लिए हिंसा 
हिंसात्मक शब्द - अन्याय है.
यातना का सूक्ष्म कण भी 
निजी नहीं होता 
सड़क पर जब चीखें उभरती हैं 
तो वह निजी नहीं रह जातीं 
ऐसे में 
हारे लम्हों की हारी साँसों को कोई कहे 
तो सुनो
क्योंकि उन लम्हों में सरेआम सरेराह छीन लिए गए 
निजी एहसासों की थरथराती सिसकियाँ होती हैं 
उन पर ऊँगली उठाने से पहले 
उनसे सवाल करो 
जो निजी जीवन की परिभाषा से 
खुद तो गुमराह हैं ही
दूसरे का नाम घसीट रहे !
अन्याय कभी निजी नहीं होता 
होता तो न कैकेयी ज़ुबान पर होतीं
न कुंती !

वाल्मीकि ने अनुमानित रामायण नहीं लिखा 
सीता ने वाल्मीकि से अपनी कथा कही 

वेदना जब गहरी हो 
तो ..... सही गलत का पता नहीं चलता 
परिणाम सही तो चयन सही
परिणाम गलत तो सबकुछ गलत 
निजी दुःख भी गलत 
और हास्यास्पद !
पर इसके लिए उपयुक्त प्रावधान नहीं बनाये जा सकते 
ज़िन्दगी जुआ है 
जीत  गए तो सब सही
हार गए तो मूर्ख !!!
किसी ने बातों का मान रखा 
तो निजता का मान हुआ 
दुह्शासन बन गया 
तो .......... 
अंततः प्रश्न मानसिकता का शिकार होता है 
ये निजी और निजित्व है क्या !!!!!!!!!!!!!!!!!

25 अक्टूबर, 2012

बित्ते भर की थी सच की जमीन ...



(माँ ने कहा - बित्ते भर की थी सच की जमीन .... और भाव उमड़ते गए मेरे अन्दर)

बित्ते भर की थी सच की जमीन ...
पर झूठ की ईमारत बड़ी ऊँची बनी !
एक एक कमरा शातिर 
और रहनेवाले लोग धुएं के छल्लों से 
जो होकर भी गुम हैं !
कहते हैं बुद्धिजीवी की शक्ल में सभी 
कि बिना आग के धुंआ नहीं 
एक हाथ से ताली नहीं ...
बित्ते भर की शक्ल में आम लोगों से पूछो 
कि किस तरह बिना आग के वे बुरी तरह झुलस गए 
किस तरह रेकॉर्डेड तालियाँ गूंजती रहीं 
और वे ...............
न खुद पर बर्फ़ रख सके 
न कुछ बोल सके 
एक ही प्रश्न एक लगातार होते रहे 
जवाब सुनने के लिए कोई था ही नहीं 
तो चुप का धुंआ फैलता रहा !!!

बित्ते भर की जमीन 
अपनी सच्चाई किस कमरे में पहुंचाए 
आलिशान फ्लैटों में तो ताले जड़े होते हैं 
लिफ्ट से नीचे उतर 
सारे चेहरे 
लम्बी सी कार के स्याह शीशों में छुप जाते हैं 
आम चेहरे उन्हें रास ही नहीं आते !

बित्ते भर की जमीन की सच्चाई 
दिखाए कौन ?
वह .... जिसने बेटी की शादी के लिए 
कौड़ियों के भाव उसे बेच दिया 
कौन करेगा उस पर विश्वास ?
वे .... जो शक से ही आरम्भ करते हैं !
करें भी कैसे नहीं -
मिलावट उनका ऐशो आराम है 
सबकुछ के बाद भी रोना उनका टोटका है 
सच के साए तक से उन्हें नफरत है 
तभी तो .....
बित्ते भर जमीन की सच्ची हैसियत 
उन्होंने झूठ की मिटटी में मिला दी 
और नशे में तर्पण अर्पण कर दिया ....

चलो इतना तो साथ निभाया 
मारा तो संस्कार भी कर दिया 
नशे में धुत्त ही सही ............
...................
बड़े लोगों की बड़ी बात 
सच की क्या बात !
छोटी सी औकात 
और विश्वास -
आखिर में सत्य की ही जीत होती है !
जाने कहाँ है यह आखिरी सीमा 
बित्ते भर सच की ?????????

22 अक्टूबर, 2012

हवा यूँ हीं तो नहीं सर पटकती ..



दर्द जब गहरा हो
तो आँखों की नदी भी सूख जाती है 
शुष्क आँखों के नीचे 
एक शुष्क हँसी होती है
श्रवण के माता-पिता की तरह !
दर्द को दर्द का मारा ही समझता है
समय समय पर प्लावित नाले 
नदी की भाषा नहीं समझते !
गंगा ने दिशा बदल दी
सूख गई...
क्यूँ' के जानकार 
अनभिज्ञ भाव लिए 
आह्वान करते हैं 
कारण का निदान नहीं !
दुष्कार्य से परे 
अगर की खुशबू से 
देवता को खुश होना होता 
तो सुनामियों का कोई अस्तित्व नहीं होता !
आसमां छूती इमारतों से दिखते 
धुंधले अपरिचित चेहरे
इस दुनिया के नहीं लगते 
उनकी चाल ढाल 
उनकी उड़ती नज़र 
उनकी अमीरी नहीं दिखाती
उनके भविष्य की अनिश्चितता बताती है !
उनका अनिश्चय जब मिट्टी होगा 
तो कौन मिट्टी देगा
इससे बेखबर वे इमारतों 
और आलिशान गाड़ियों के महंगे शीशे में
विलीन होते जा रहे हैं 
.....
वे क्या जानेंगे सड़क पर खड़ी उस लड़की की व्यथा
जिसके बाल उलझे हैं
एक लकीर गालों पर है
और सूखे होठों पर 
कोई माँग शेष नहीं ....

दर्द जब कटघरे में होता है
तो बहुत सन्नाटा होता है
दर्द अक्सर बेज़ुबान होता है 
भीड़ में मूक चीखों के संग 
वह निरंतर खुद को समझाने का 
अथक प्रयास करता है !
हवा यूँ हीं तो नहीं सर पटकती ...
पुरवा ,पछिया जो भी नाम दो 
वह दर्द को जुबान देती है 
सबके दरवाज़े,खिडकियों पर दस्तकें देती है 
... हम !
अपनी शान्ति के लिए 
बंद कर लेते हैं दरवाज़े-खिड़कियाँ !!!

19 अक्टूबर, 2012

उंच नीच अमीर गरीब महल झोपडी - इसके फर्क से व्यक्ति का आकलन नहीं होता ...


उंच नीच 
अमीर गरीब 
महल झोपडी 
इसके फर्क से व्यक्ति का आकलन नहीं होता ...
करने को कितना भी कर लो 
पर वह मायने नहीं रखता .
संस्कार से गुण होते और जाते हैं 
छोटे घरों से भी कुलीन विचार आते हैं !

ऊँचे घरों की खिडकियों से 
जब चीखने चिल्लाने की 
आवाजें आती हैं 
बेबाक गालियाँ सुनाई देती हैं 
तो लोग कहते हैं 
'झोपड़पट्टी जैसे हालात हैं'
!!!
झोपड़ी में तो कोई नहीं कहता 
'बड़े घरों की भाषा मत बोलो'

झोपड़ी अपने अभावों से लड़ती है 
थककर चीखती है 
सस्ती शराब पीकर फुटपाथ पर ढेर हो जाती है 
पर ऊँचे लोग,बड़े लोग 
सम्पन्नता के नशे में 
एक दूसरे को छोटा बताते हैं 
महँगी शराब पीकर 
अपनी अहमियत 
अपनी शान 
अपना रूतबा 
अपने संस्कार 
गालियों से सिद्ध करते हैं 
आपस में आइना दिखाते हुए 
वे अपने बाथरूम के टब में ढेर हो जाते हैं 
उनके घरों में आये मेहमान 
उनके कंधे थपथपाते 
अपना हिसाब किताब देखने अपने घर चल देते हैं
सुबह की अंगड़ाइयों में 
झोपडी से आती आवाज़ पर 
मुंह बिचकाते कहते हैं 
'बेशहूर हैं सब'
!!!
अपने शहूर पर उन्हें नाज  है 
इस सत्य से परे 
कि .... झोपडी के खाने में आज भी स्वाद है 
उनके आगे 
उनकी  किसी टिप्पणी के बगैर 
उनका रहन सहन बेस्वाद है !

17 अक्टूबर, 2012

कैसा आगमन किसका आगमन .... और विसर्जन यानि विदाई !!!





माँ दुर्गा 
असुर संहारक 
उनके आगमन का तात्पर्य 
हम अपने भीतर की नकारात्मकता 
आसुरी प्रवृति को खत्म करें !
नकारात्मक सोच 
सहज प्रवृति है 
पर कल्पना के कई स्रोत होते हैं 
एक जो हर हाल में सकारात्मक हो 
दूसरा मर्यादित 
तीसरा हिंसात्मक ....
......
संस्कार और पालन-पोषण 
भावभंगिमा
शब्दों के उचित -अनुचित प्रयोग से 
स्पष्ट उजागर होते हैं !
मातृत्व की गरिमा लिए 
सौन्दर्य,जय,यश लिए 
माँ दुर्गा जयकार सुनने नहीं आतीं 
नहीं आतीं यह देखने 
कि कितने फलों से उन्हें पूजा गया है 
दाता को कमी किस बात की ...
वह तो सिर्फ मन से अर्पित भावों को देखती हैं 
और उसके आधार पर लेती और देती हैं !
अनुचित शब्दों के प्रयोगमात्र से 
हम शक्तिविहीन होते हैं 
किसी को रुलाना 
किसी के उपहास से शान्ति पाना 
किसी की हत्या 
.... शक्तिद्योतक नहीं 
शक्ति है 
एक रोटी को आधी कर 
आधी भूख आधी नींद को बांटना 
शक्ति है 
होठों पर हंसी देना 
भय से मुक्त करना 
विषम परिस्थियों में साथ होना 
.....
इससे बड़ी पूजा 
इससे बड़ा ज्ञान 
इससे बड़ी शक्ति 
इससे अलग कोई मुक्ति नहीं ....

माँ एक नहीं - पूरी नवरात्री तक 
अखंड दिए की ज्योत में 
अंधकार से भरी मूढ़ता को 
ज्ञान की रौशनी देती हैं ....
पर तथाकथित भक्तगण 
लाने से लेकर विसर्जित करने तक 
तन्द्रा में होते हैं 
ऐसे में कैसा आगमन 
किसका आगमन ....
और विसर्जन यानि विदाई !!!

12 अक्टूबर, 2012

और ज़िन्दगी रूकती नहीं !!!





क्यूँ नहीं होता वह सब-
जो हम खुली आँखों सपनाते हैं
क्यूँ होता है वह
 -जो हम नहीं चाहते हैं ...

कठिन प्रश्न-पत्र की तरह होनी
हमेशा आगे खड़ी होती है
सोच से परे
 ज़िन्दगी के हिसाब देती है
वह भी ऐसे हिसाब
जो कभी एक और एक मिलकर दो होते है
कभी एक रह जाते हैं
तो कभी शून्य !
मुझे नहीं आता है हिसाब -
वह जानती है
फिर भी - सिखा जाती है फॉर्मूला !

यूँ किसी के भी प्रश्न पत्र सरल नहीं होते
चाहे गरीब के हों
या अमीर के ...
होनी सा गुरु भला कौन
जो प्रश्नों में जकड़ कर जीना सिखाये !

जब हम समझते हैं
कि सूरज अपनी मुट्ठी में है
नया सवेरा रिसने को है
तब गहरा अन्धकार होता है आगे
जिसमें हाथ को हाथ नहीं मिलता
तो प्रश्नों को कोई क्या पढ़ेगा !
पर वाह रे प्रभु की बाजीगरी
बढ़ने को विवश करता है
और हम बढ़ते भी हैं ...
मृत्यु पाठ्य पुस्तक का समापन पृष्ठ नहीं
अगली परीक्षा का फॉर्म होता है
......
कई बार नहीं अनेक बार
हम कॉलम सही नहीं भरते
कभी उम्र झूठ
कभी अंक,कभी उपलब्धियां
कभी लक्ष्य...
हम सोचते हैं - कोई क्या समझेगा भला !
यहीं पर हम गोता खाते हैं
और भंवर में पड़ते हैं
पानी में उजबुजाती स्थिति
और सामने खड़ी होनी
प्रश्न पत्र की भयावहता के संग
नए सबक सिखाती है !
.......
होनी होनी है,हम हम-
वह सिखाने से बाज नहीं आती
हम चाल चलने से बाज नहीं आते
कभी नहीं सोचते हम
कि सारे फसाद की जड़ हम
और हमारी मूर्खता है
जिसे हम बुद्धिमानी कहते थकते नहीं ...
..... और ज़िन्दगी रूकती नहीं !!!



10 अक्टूबर, 2012

होनी तो काहू विधि ना टरे ...




राम का राज्याभिषेक 
हर्ष में डूबी पूरी अयोध्या 
दिग्गज मुनिगण 
पवित्र तीर्थस्थलों के जल 
कौशल्या का विष्णु जाप ....
तिथि,शुभ समय निकालनेवाले 
ज्ञानी और तेजस्वी 
किसी ने नहीं बताया 
कि सुबह की किरणों के साथ 
सम्पूर्ण दृश्य पलट जायेगा 
राम,सीता,लक्ष्मण वन को प्रस्थान करेंगे 
दशरथ की मृत्यु होगी 
तीनों रानियाँ वैधव्य को पाएंगी 
उर्मिला 14 वर्ष पति से दूर होंगी 
भरत के प्रण के आगे मांडवी भी अकेली होंगी !!!......

रावण वध के लिए 
इतनी सारी व्यवस्थाएं डगमगायीं 
माता सीता भी रावण की अशोक वाटिका में रहीं
राम से अलग 
अग्नि परीक्षा देकर भी वन गयीं 
..... 
राजा दशरथ के कुलगुरु वशिष्ठ 
उन्हें तो श्रवण के माता-पिता की मृत्यु का भान 
अवश्य ही रहा होगा 
श्राप,मृत्यु,राम वन गमन से वे अनभिज्ञ नहीं रहे होंगे 
तो किस हेतु उन्होंने आगाह नहीं किया ?
आगत को टालना तो उनके लिए अति आसान रहा होगा 
फिर ?
क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता 
कि आगत को आने से रोकना 
इस असंभव को संभव बनाने की कोशिश 
सर्वथा अनुचित कार्य है 
जो ईश्वर ने निर्धारित किया है 
उसे आम मनुष्य के शरीर में मानना 
तो स्वयं प्रभु के लिए भी अनिवार्य है ...
................
जब प्रभु ने पिता की मृत्यु को मौन स्वीकृति दी
माताओं का वैधव्य स्वीकार किया 
सीता को रावण के हवाले किया 
उर्मिला,भरत,मांडवी को वियोग दिया ......
फिर क्या कर्मकांड
क्या चेतावनी !
ईश्वर ने जो सोच रखा है 
उसमें विघ्न क्यूँ !
होनी तो काहू विधि ना टरे ...

08 अक्टूबर, 2012

जब तक गति है - पाना है खोना है




खुद को ढूंढना,तौलना...
पाकर खुद से खुद को खोना,
असली जीवन है- और ख़ुशी भी .
पा लो खुद को
रख लो संजो के
फिर खोज ख़त्म हो जाती है
विराम हो जाए
तो जो प्राप्य है
वह एकबारगी अधूरी हो जाती है !
लम्हा लम्हा कोई पाता है खुद को
फिर अचानक उस पर
डाल देता है एक झूठा आवरण
तो वहाँ से उत्पन्न होता है
एक और सत्य -
जिसकी परिधि में
विस्तार में
स्व और स्व की छाया
घटती बढ़ती रहती है ...
छाया घटे या बढे
है तो असत्य और अपूर्ण ही
और पूर्णता के लिए निरंतरता तब तक ज़रूरी है
जब तक साँसें हैं !
न प्रश्न, न उत्तर
स्व की क्रिया प्रतिक्रिया
आतंरिक होती है
जो अर्धमुर्छावस्था में भी सक्रिय है
मृत दिमाग
यदि साँसें ले रहा है
तो वह
निःसंदेह -
एक अकथनीय जीवन जी रहा है
व्यक्तिविशेष और उसका शरीर
भले ही उत्तर ना दें
पर उसके अर्थ उसके साक्ष्य मृत दिमाग में
असाक्ष्य भाव से गतिशील होते हैं
और जब तक गति है
पाना है
खोना है
घड़े के पानी की तरह !
घड़ा यदि भरा रह जाए
तो कोई प्यासा रह गया - तय है
कालांतर में जल पीने योग्य नहीं रहा
तो सहज भाव से रिक्त होना है
ताकि फिर भर सकें !
................
सूर्य के अस्त होने में ही उदय भाव है
और प्रकृति की नवीन गतिशीलता .......

05 अक्टूबर, 2012

मैं ही नहीं तो कुछ नहीं !



मैं'   अहम् नहीं
आरंभ है 
मैं से ही तुम और हम की उत्पत्ति है
मैं ही नहीं तो कुछ नहीं !
प्रेम,परिवर्तन,ईर्ष्या,हिंसा....
सबके पीछे मैं 
इस मैं को प्रेम ना दो 
तो वह हिंसात्मक हो जाता है
ईर्ष्या की अग्नि में जलता है
परिवर्तन के नाम पर उपदेशक बन जाता है ...
तो सर्वप्रथम मैं की अहमियत जानो !
प्राकृतिक सम्पूर्णता में 
मैं के अनगिनत बीज लगे हैं
उनका सिंचन मैं ही करता है 
मैं ही वेद,मैं ही उपनिषद
मैं ही ग्रन्थ,मैं ही महाग्रंथ
मैं का विलय एक सूक्ष्म प्रक्रिया है
जो मैं अपनी दृष्टिगत क्षमता
और प्राप्य के हिसाब से करता है !
ईश्वर एक 
अर्थात मैं का स्वरुप
ईश्वर सबमें 
अर्थात मैं ही ब्रह्म 
अब यदि मैं सकारात्मक है तो निश्चित रूप से देव है
नकारात्मक है तो असुर !
मैं ही माँ 
मैं ही पिता
संतान मैं के कार्य का परिणाम
परिणाम - सिर्फ मैं 
या मैं की प्राणवायु शक्ति 
जो मैं से तुम 
और दोनों के संयोग से हम बने ...
मैं  के योग से दैविक समूह बनता है
तो इसी योग से असुर समूह भी 
समूह सृष्टिकर्ता है
तो विनाशक भी 
इसलिए समूह से परे 
पहले मैं को जानो 
सत्य और असत्य 
मैं के मुख्य द्वार पर ही मिलते हैं 
और दिशा - 
उस मैं से ही विभक्त होती है तुम्हारे लिए
कि तुम्हारा मैं किस दिशा का चयन करता है 
....
अतः मैं को समझो
मैं को जानो
मैं को सजग और मजबूत करो...
आगत मैं में है
मैं ही नहीं तो कुछ नहीं 
कुछ भी नहीं  !!!

03 अक्टूबर, 2012

खुद से विमुख खुद की जड़ें ढूँढने लगती हूँ ...



सबको आश्चर्य है
शिकायत भी
दबी जुबां में उपहास भी 
कि बड़े से बड़े हादसों के मध्य भी
मैं सहज क्यूँ और कैसे रह लेती हूँ !!!
चिंतन तो यह मेरा भी है 
क्योंकि मैं भी इस रहस्य को जान लेना चाहती हूँ ...
क्या यह सत्य है 
कि मुझ पर हादसों का असर नहीं होता ???

यह तो सत्य है कि 
जब चारों तरफ से प्रश्नों 
और आरोपों की अग्नि वर्षा होती है
तो मेरे शरीर पर फफोले नहीं पड़ते 
जबकि कोई अग्निशामक यन्त्र नहीं है मेरे अन्दर ...!
जब अमर्यादित शब्दों से 
कोई मुझे छलनी करने की चेष्टा करता है 
तो मैं कविता लिखती हूँ
या किसी पुस्तक का संपादन 
अन्यथा गहरी नींद में सो जाती हूँ !
हाँ...मुझे यथोचित ... 
और कभी कभी अधिक 
भूख भी लगती है - 
तो मैं पूरे मनोयोग से अच्छा खाना बनाती हूँ 
खिलाती भी हूँ 
खा भी लेती हूँ ...
बीच बीच में फोन की घंटी बजने पर
अति सहजता से उसे उठाती हूँ 
हँसते हुए बातें करती हूँ 
वो भी जीवन से जुडी बातें ...

लोगों का आश्चर्य बेफिज़ुल नहीं 
मैं खुद भी खुद को हर कोण से देखती हूँ 
हाँ देखने के क्रम में 
उस लड़की .... यानि स्त्री को अनदेखा कर देती हूँ 
जो समय से पूर्व अत्यधिक थकी नज़र आती है 
जो शून्य में अपना अक्स ढूंढती है
सुबह की किरणों के संग सोचती है
'ओह...फिर दिनचर्या का क्रम'
रात को बिस्तरे पर लेटकर एक खोयी मुस्कान से
खुद को समझाती है
'नींद आ जाएगी'...
अपने उत्तरदायित्वों से वह जमीन तक जुड़ी है
हारना और हार मान लेना दो पहलू हैं 
तो.... वह हार नहीं मानती 
एक सुनामी की आगोश में
अपनी सिसकियों के संग 
गीत भी सुनती है 
......
लोग !!!
सिसकियाँ सुनने की ख्वाहिश में 
जब गीत सुनते हैं
तो उनका आक्रोश सही लगता है
और मैं भी खुद से विमुख 
खुद की जड़ें ढूँढने लगती हूँ ...

30 सितंबर, 2012

ज्ञान कहो या घर




ज्ञान- बुद्ध और घर ! 
ज्ञान वही एक सत्य-
रोटी,कपड़ा और मकान . 
जन्म,मृत्यु,बुढापा,रोग...
कुछ तो नहीं बदलता ज्ञान से !
हाथ की टूटी लकीरों के बावजूद
कोई जी लेता है
कोई असामयिक मौत को पाता है 
पर क्या यह सच है?
क्या सच में असामयिक मृत्यु होती है ?
जन्म,मृत्यु तो तय है
रास्तों का चयन भी
घुमावदार रास्ते भी ....
पेट की भूख,शरीर की भूख
और आत्मा की भूख 
छत भले ही आकाश हो 
क्षुधा शांत करने के स्रोत मिल ही जाते हैं
.... ना मिले तो जबरन !!!
पर......
आत्मा की भूख जबरन नहीं मिटती
और वही तलाश 
किसी को बुद्ध 
किसी को आइन्स्टाइन 
किसी को अंगुलीमाल
किसी को वाल्मीकि .... बनाती है 
आत्मा के गह्वर से 
विकसित होती है सहनशीलता
और सहनशीलता पहाड़ों को चीरकर 
अपनी निश्चित दिशा निर्मित करती है ...
.....इसे ज्ञान कहो
या घर 
एक रोटी के साथ आत्मा भटकती है 
मरती है
फिर जन्म लेती है 
तलाश पूरी हो तो अमर हो जाती है 

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...