22 दिसंबर, 2017

बेचारा गुल्लक !




गुल्लक को हिलाते हुए
चन्द सिक्के खनकते थे
उनको गुल्लक के मुंह से निकालने की
जो मशक्कत होती थी
और जो स्वाद अपने मुंह में आता था
उसकी बात ही और थी
वह रईसी ही कुछ और थी !
....
अब 50 पैसे की क्या बात करें
5, 10 रुपये के सिक्के
भिखारियों को देने होते हैं
!!!
गुल्लक में अब रुपए डाले जाते हैं
उसमें भी
50, 100 में मज़ा नहीं आता
जितना भी निकले कम ही लगता है
अब यह बात भी बेमानी हो गई है
कि बूंद बूंद से घट भरत है
बेचारा घट !
या तो खाली का खाली रहता है
या फिर सांस लेने को उज्बुजाता है
बेचारा गुल्लक !
पहले कितना हसीन हुआ करता था
!!!

14 दिसंबर, 2017

पुनरावृति




दिए जा रहे हैं बच्चों को सीख  !
"ये देखो
वो देखो
ये सीखो
वो सीखो
देखो दुनिया कहाँ से कहाँ जा रही है
!
गांव घर में खेती थी
अपने घर का अनाज
तेल, घी
... सब छोड़कर दूर आए बड़े शहर में
कि तुमलोगों को
आजकल की ज़िंदगी से जोड़ सकें
और तुमलोगों को अपने बड़ों का ख्याल ही नहीं
!!!."

दिए जा रहे हैं बच्चों को दोष !
"ये इतना बड़ा घर तुम्हारे लिए ही लिया
तुम दूसरे शहर में नौकरी कर रहे
वहीं बसना चाहते हो
कोई सोच ही नहीं है
.... !!!
यहाँ रहो
यहीं कुछ करो
बच्चों को बुज़ुर्गों से जुड़ने दो
भाग रही है दुनिया
उन मासूमों को कितना भगाओगे !,"
.....
चलता रहता है सिलसिला
एक हम थे !!!
हर पिछला कदम कुछ और होता है
हर अगला कदम कुछ और
..

08 दिसंबर, 2017

प्रभु




देनेवाले,
तेरा दिया
तुझे ही देकर
सब बहुत खुश हैं !
सोने से तुम्हें सजाकर
डालते हैं एक उड़ती दृष्टि
अपने इर्दगिर्द
और मैं तोते की भांति रटती जाती हूँ
बिन मांगे मोती मिले ...

प्रभु,
तुम देते हो
और बिना माँगे
तुम्हें ही थोड़ा वापस मिल जाता है
!!!

प्रभु
थोड़ा मुझे भी दो न
....पर यकीनन -
तुम्हें जरा भी वापस नहीं दूँगी
हर दिन की तरह
तुम्हारे कमरे में झांकूँगी
रक्षा मन्त्र पढूंगी
कुछ चाह तुम्हारे आगे रखके
काम में लग जाऊँगी
....
झूठमूठ मैं न तो खुद को उलझाऊंगी
न तुम्हें ...
तुम्हीं बोलो,
सीढियां चढ़के
अब कैसे आ सकती हूँ
और सोने के सिंहासन पर
तुम्हारी मूर्ति रखकर क्या करूँगी !
तुम नदी, नाले
धूप, छांव
पहाड़, बियाबान ...
सबकुछ पार करके
सबके सर पर हाथ रखते हो
मेरे ऊपर अपना यह हाथ रखे रहो
जो बन पाए
मुझे देते रहो
मैं उसमें से किसी और को दूँगी
जिसके लिए तुमने ही एक मन दिया है
मैं जानती हूँ
पूजा विधि से अलग
इस बात से
मेरी विधि से तुम भी खुश  रहते हो
....
तुम्हारी इस हँसी के आगे
मैं ही धूप
हवनकुंड
अगरबत्ती
दीया
.... गंगा जल
समझ लो स्वनिर्मित मंत्र भी
......
प्रसाद  .... जो तुम दो
:)

03 दिसंबर, 2017

मैं झांसी की रानी




कंपकंपाता अंधेरा
न झींगुरों की आवाज़
न घने पेड़ के पत्ते ही खड़क रहे हैं
....
हाँ मैं झांसी की रानी
बुंदेले हरबोलों के मुख से
जिसकी कहानियाँ कही गई हैं
...
अति कुछ नहीं सुना तुमने
मैं दक्ष घुड़सवार
तलवार मेरी
विद्युत की गति से चमकती थी
मेरा लक्ष्य
दुश्मनों का सर्वनाश था
मैंने किया भी !
युद्ध संचालन
विपरीत परिस्थितियों में हौसला
तीव्र दृष्टि
शेरनी सी दहाड़
नाना की मुँहबोली बहन थी न
उस भाई ने यह सबकुछ
राखी के बदले दिया था
....
लेकिन यह घुप्प अंधेरा
सांय सांय करता सन्नाटा
मुझे सोने नहीं देता
चलने नहीं देता
ठहरो,
इस बच्चे की उंगली थाम लूँ
उसे अपने होने का एहसास देते हुए
खुद को उसके होने का एहसास दे लूँ
... रात कट जाएगी
फिर मैं
सम्पूर्ण सूरज हो जाऊँगी ...

30 नवंबर, 2017

मैं .......




....
मैं एक माँ हूँ
जिसके भीतर सुबह का सूरज
सारे सिद्ध मंत्र पढता है
मैं प्रत्यक्ष
अति साधारण
परोक्ष में सुनती हूँ वे सारे मंत्र  ...
ॐ मेरी नसों में
रक्त बन प्रवाहित होता है
आकाश के विस्तार को
नापती मापती मैं
पहाड़ में तब्दील हो जाती हूँ
संजीवनी बूटियों से भरा पहाड़ !
मेरी ममता शांत झील सी
कब सागर की लहरें बन जाती हैं
पता ही नहीं चलता  ...
शिव जटा से गिरती मैं
मोक्ष का कारण बनती हूँ
ब्रह्माण्ड बनी मैं
परिवर्तन के धागे बुनती हूँ !
रक्षा के षट्कोण बनाती हूँ
दीप प्रज्ज्वलित करती हूँ
शुभ की कामना लिए
दसों दिशाओं में
मौली बाँधती हूँ
आँचल के पोर पोर में
आशीर्वचन लिखती हूँ
... घुमड़ते हैं बादल भी कभी कभी
होती है बारिश
इंद्रधनुष थिरकता है
ख्वाब पनपते हैं

24 नवंबर, 2017

नहीं कहता कोई, मेरे घर आना




आजकल
हर जगह
बहुत हाईफाई सोसाइटी है
कोई किराये पर है
कुछ के अपने
 अतिरिक्त घर हैं
सुविधाओं का अंबार है
भीड़ बेशुमार है
कोई किसी से नहीं मिलता
कभी हो लिए रूबरू
तो सवाल होता है
कहाँ से हो ?
जाति ?
अपना घर लिया है या ...?
मेरा तो अपना है !
बाई है ?
क्या लेती है ?
कौन कौन से काम करती है ?
.....
अब नहीं कहता कोई
कि मेरे घर आना !
अगर फिर भी
कोई आ गया
तो चेहरे पर खुशी नहीं झलकती
और दूसरे के माध्यम से सुना देते हैं लोग
सेंस नाम की चीज ही नहीं है
कभी भी चले आते हैं ...
अब तो भईया
पार्क जाओ
जिम जाओ
स्विमिंग सीख लो
औरों को फिट रहना सिखाओ
और ....

मन ही मन बुदबुदाती हूँ
बातें करती हूँ अपनेआप से
जब शरीर जवाब दे जाए
अकेलापन कॉल बेल बजाने लगे
सेंसलेस
 ... कभी भी
तब सुविधाओं के कचरों की ढेर से
जमीनी सोच के साथ
बाहर आना
क्या पता कोई अपने स्वभाववश
तुम्हारे साथ हो ले
अकेलेपन को सहयात्री मिल जाए ....!

18 नवंबर, 2017

सबके सब डरे हुए हैं आगत से




हम बच्चों को सिखा रहे उच्च स्तरीय रहन सहन
हर बात की सुविधा दे रहे
उसके साथ मत खेलो
ये मत खेलो
ये खेलो
कोई गाली दे तो गाली दो
मारे तो मारके आओ ...
हर विषय को खुलेआम रख दिया है
फिर ?!
कौन सी संवेदना
उनके भीतर पनपेगी !
एक कोमल लता को
डोरी से बाँधकर
हम जिस दिशा में करेंगे
वह उसी तरफ जाएगी
जन्मगत संस्कार
काफ़ी उधेड़बुन से गुजरते
और पनपते हैं !
बच्चे - बच्चे कम,
सर से पाँव तक शो पीस लगते हैं
हम कितने माहिर अभिभावक हैं
इसकी होड़ में
वे रोबोट लगते हैं !
समझ में नहीं आता
दया किस पर दिखाई जाए
हमने परिवार,
समाज,
मीडिया,
सबकुछ मटियामेट कर दिया
स्वाभाविक बचपना
नाममात्र रह गया है
वो भी कहीं कहीं
सबके सब डरे हुए हैं आगत से
लेकिन आधुनिक रेस में शामिल हैं

15 नवंबर, 2017

मैं तुमसे कभी नहीं मिलना चाहूँगी




मैं तुमसे कभी नहीं मिलना चाहूँगी
फिर भी,
गर मिल गए
तो मेरी खामोश नफरत को कुरेदना मत
क्योंकि उससे जो आग धधकती है
उस चिता में
तुम्हारे संग
 कुछ आत्मीय चेहरे भी
झुलसने लगते हैं
उन चेहरों को निकालते हुए
मेरा हृदय छालों से भर जाता है
फिर ...

जिस किसी ने भी
यूँ ही सही
तुम्हारा हाल पूछा है
जवाब देते हुए मैंने
एकलव्य की तरह बाण चलाये हैं
द्रोणाचार्य को बेबसी से देखा है
उस क्षण भूल गई हूँ
एक शिष्य का कर्तव्य !
बात दक्षिणा की नहीं
श्रद्धा, सम्मान की है
जब जब तुम्हारा ज़िक्र हुआ है
मेरे संतुलित संस्कार नष्ट हो गए हैं !!!

मेरी सहजता ने सच कहा सबसे
बताया मेरी नफरत का अर्थ विस्तार से
लेकिन
आह! करके
वे तथाकथित अपने
निर्विकार होकर तुम्हारी बातें करने लगे
बात बुरा लगने की नहीं थी
बात थी मेरी उन हत्याओं की
जो कई स्थलों पर
कई बार हुई ...
बिल्कुल जलियाँवाला बाग़ की तरह !

यद्यपि
ये सारे निर्विकार अबोध
अपनी छोटी सी बात पर
दुःशासन बन जाते हैं
कहीं भी
कभी भी
अपमानित करने से नहीं चुकते
पर,
जहाँ मौन रहना चाहिए
या एक सत्य की रक्षा में
झूठ बोलना चाहिए
वहाँ सूक्तियाँ बोलते हैं !

यदि ऐसा करना
इनका इठलाना है
तो ज़रूरी है ये जानना
इठलाते हुए
अनाप शनाप बोलते हुए
ये खुद को हास्यास्पद बनाते हैं
अपने इर्द गिर्द नकारात्मकता फैलाते हैं  ...

खैर,
मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ
कि
मैं तुमसे कभी नहीं मिलना चाहूँगी
फिर भी,
गर मिल गए
तो मेरी खामोश नफरत को कुरेदना मत !!!

11 नवंबर, 2017

ज़िन्दगी की सम्पूर्णता बेतरतीब ही होती है




 जीवन के अब तक के सफर में
कई ऐसे घर मिले
जहाँ सबकुछ
एक सुनिश्चित जगह पे था
व्यवहार में शालीनता
मृदुता थी
लेकिन एक कमरा
 सिसकियों से भरा था
जहाँ थे कुछ कागज़ के टुकड़े
उनमें खींची हुई रेखाएँ
जो मासूम सपनों का आभास देती थीं !
एक संदूक
चिट्ठियों 
और पुराने कपड़ों से भरा
....
जिस दिन वह कमरा खुलता
चिट्ठियों को उलटपुलट
नए सिरे से पढ़ा जाता
कपड़ों की चरमराती तहे खुलतीं
तो .... सपने ही सपने फैल जाते थे आंखों में
उस दिन,
सुनिश्चित जगह वाला घर
और उसे मृदु रखनेवाला
तरतीब से होकर भी
मुझे ... बेतरतीब दिखाई देता
.....!
कितनी बार चाहा
कुछ ऐसा कर दूं
कि सिसकियाँ बन्द हो जाएं
वजहें प्रवाहित हो जाएं
पर धीरे धीरे जाना
ज़िन्दगी की सम्पूर्णता बेतरतीब ही होती है

09 नवंबर, 2017

सुबह .... हमेशा एक सी नहीं होती




सुबह .... हमेशा एक सी नहीं होती
नहीं होता कहीं एक सा घर
घर के कोने बदल जाते हैं
बदल जाती हैं खिड़कियाँ
पेड़ों के झुरमुट
फूलों की खुशबू
फेरीवाले की पुकार
.....
एक सुबह हुआ करती थी
हम भाई बहनों की
अम्मा पापा के साथ
जिसमें जलेबी की मिठास थी
प्रभात फेरी का नशा था
जूते को चमकाते हुए
पॉलिश क्या
जीभ छूकर जूते को गीला कर लेते थे
या अपने ही कपड़े के कोने से
आँख बचाकर जूते को पोछ लेते थे !
मीठी हवा , भीनी धूप, झीनी चाँदनी
और वो गोलम्बर
.... मन्दिर की घण्टियाँ भी बजती थीं
अजान के स्वर भी झंकृत थे
सर्व धर्म एक सा सूर्योदय
चेहरे को छू जाता था ....
घर वही था कुछ वर्षों तक
पर सुबह में वह बात नहीं रही
बिना उदासी का अर्थ जाने
आंखें उदास रहने लगीं !!!
वह सुबह फिर कभी आई ही नहीं ....

बरसों बाद एक आज़ाद सूरज
खिड़की से ,
बालकनी के दरवाजे से छनकर आया
गौरैया चहकी
घर के कोने बदल गए थे
पेड़ों का झुरमुट नहीं था
लेकिन कमाल का बना वह छोटा सा घर
!!!
सुबह नन्हें पैरों को गुदगुदाती
माँ की पुकार
चूल्हें से उठती सोंधी खुशबू लगती !
गाहे बगाहे
अंग्रेजों के बूट बजते थे
मचलते पैर कई बार स्थिर हो जाते थे
लेकिन सरफरोशी की तमन्ना ने
हमारी सुबह को मरने नहीं दिया
समय की सीख कहें
या खुद का हौसला
हम अपने भींचे जबड़ों की मुस्कान में
सुबह का स्वागत करने लगे
और सुबह
एक मीठी गुनगुनाती हवा के संग
हम सबके सपनों में हम होंगे कामयाब की
धुन बन गया ....
सपने हकीकत हुए
समय की माँग पर
फिर घर बदले
बदल गई खिड़कियाँ
....
अब यादों की सुबह होती है
इस विश्वास के साथ
फिर गुदगुदाएगा सूरज
और दो बाँसुरी बोलेगी
माँ ...पापा ...
तवे पर सोंधी सोंधी रोटियाँ पकेंगी
दो दो सबके नाम से  ...

26 अक्टूबर, 2017

यदि तुम चाहो !!!




बैठो
कुछ खामोशियाँ मैं तुम्हें देना चाहती हूँ
वो खामोशियाँ
जो मेरे भीतर के शोर में
जीवन का आह्वान करती रहीं
ताकि
तुम मेरे शोर को पहचान सको
अपने भीतर के शोर को
अनसुना कर सको !

जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा
कभी बेहद लम्बी होती है
कभी बहुत छोटी
कभी  ...
न जीवन मिलता है
न मृत्यु !!

जन्म ख़ामोश भय के आगे
नृत्यरत शोर है
मृत्यु
विलाप के शोर में
एक खामोश यात्रा  ...
शोर ने मुझे बहुत नचाया
ख़ामोशी ने मेरे पैरों में पड़े छालों का
गूढ़ अर्थ बताया  ...

बैठो,
कुछ अर्थ मैं तुम्हें सौंपना चाहती हूँ
यदि  ...
यदि तुम चाहो !!!

18 अक्टूबर, 2017

मृत्यु को जीने का प्रयास




मौत से जूझकर
जो बच गया ...
उसके खौफ,
इत्मीनान,
फिर खौफ को
मैं महसूस करती हूँ !
कह सकती हूँ
कि यह एहसास मैंने भोगा है
एक हद तक
इसकी शाब्दिक व्याख्या हो सकती है .....

पर वह
 ... जो मृत्यु से जूझता रहा
दम घुटने
साँस ले पाने की जद्दोजहद से गुजरता रहा
फिर !!!
वह नहीं रहा !
उसके जीवन मृत्यु संघर्ष के मध्य
क्या चलता रहा
चला
या नहीं चला !
सितार के कसे तार के
 टूट जाने की स्थिति सी
होती है अपनी मनःस्थिति
....
मृत्यु को जीने का प्रयास
अजीब सी बात है
पर
...!
ढूँढती रहती हूँ वह एहसास
वह शब्द
और ....
जाने कितनी बार उजबुजाते हुए मरती हूँ
....
!!!!

13 अक्टूबर, 2017

शाश्वत कटु सत्य ... !!!




जब कहीं कोई हादसा होता है
किसी को कोई दुख होता है
परिचित
अपरिचित
कोई भी हो
जब मेरे मुँह से ओह निकलता है
या रह जाती है कोई स्तब्ध
निःशब्द आकुलहट
उसी क्षण मैं मन की कन्दराओं में
दौड़ने लगती हूँ
कहाँ कहाँ कौन सी नस
दुख से अवरुद्ध हो गई"
कहाँ मौन सिसकियाँ अटक गई
संवेदनाओं के समंदर में
अथक तैरती जाती हूँ
दिन,महीने,वर्षों के महीन धागे पर
चलती जाती हूँ निरंतर
रिसते खून का मलाल नहीं होता
.... !!!

लेकिन,
कई बार
कितनों के दुखद समाचार
मुझे उद्वेलित नहीं करते
मन के कसे तार
टूटते नहीं
किंकर्तव्यविमूढ़ मैं
मन के इस रेगिस्तान के
तपते अर्थ ढूँढती हूँ
जिसके आगे
तमाम नदियाँ शुष्क हो जाती हैं
खुद को झकझोर कर
खुद ही पूछती हूँ
क्या मैं इतनी हृदयहीन हूँ ?
हो सकती हूँ ?
चिंतन का महाप्रलय अट्टाहास करता है
....
नज़रें घुमाओ
देखो
जानो
समझो
कि हर संवेदना
कहीं न कहीं हृदयहीन होती है
अब इसे वक़्त की माँग मान लो
या ईश्वरीय प्रयोजन
पर है यह शाश्वत कटु सत्य  ... !!!


11 अक्टूबर, 2017

कागज़ की नाव




ये इत्ता बड़ा कागज़
कित्ती बड़ी नाव बनेगी न
पापा, अम्मा, भईया, दीदी
पूरा का पूरा कुनबा बैठ जाएगा
फिर हम सात समंदर पार चलेंगे
... रहने नहीं रे बाबा
घूमने चलेंगे।

चलो इस कागज़ को रंग देते हैं
बनाते हैं कुछ सितारे
सात रंगों से भरी नाव
कित्ती शानदार लगेगी
...
फिर हम सात समंदर पार चलेंगे
... रहने नहीं रे बाबा
घूमने चलेंगे।

अर्रे
इस कागज़ को बीचोबीच
किसने फाड़ दिया
रंग भी इधर से उधर हो गए
अब सात समंदर पार कैसे जाएँगे ?
घूमना ही था न
रहने की बात तो कही ही नहीं थी !

खैर,
चलो न
दो छोटी छोटी नाव ही बना लें
कौन किसमें बैठेगा
बाद में सोचेंगे
फिर कागज़ फटे
उससे पहले
हम सपनों को पूरा कर लें
सात समंदर पार चलें
... रहने नहीं रे बाबा
घूमने चलेंगे।

08 अक्टूबर, 2017

इस मार्ग की सभी लाइनें अवरुद्ध हैं !




पहली बार
कर लो दुनिया मुट्ठी के साथ
जब एक मोबाइल हाथ में आया
तो ... कोई जल गया
और किसी ने कनखिया के देखा
कुछ दिन तक
 सबकुछ
जादू जादू जैसा रहा ...

जिस जिसने कहा
कि भाई तौबा
यह बड़ी बेकार की चीज है
वे सब हसरत से मोबाइल को देखते
बहुत वक़्त नहीं लगा
धीरे धीरे यह नन्हा बातूनी
सबके हाथ में
अलग अलग अंदाज में बजने लगा
...
कॉलर ट्यून,रिंग टोन
पूरी दुनिया
सच्ची
मुट्ठी में आ गई .
किसी से
एक कॉल कर लेने की इजाज़त की गुलामी से
सबके सब मुक्त हो गए !

फिर मोबाइल की चोरी होने लगी
संभाल कर रखने के लिए
ऐड और बैग का
नई नई तकनीकों का इजाफा हुआ ...

 नई उम्र कहीं भी गुफ़्तगू करती दिखाई देने लगी
पेड़ के नीचे
बालकनी में
टहलते हुए
....
ऐसे में ही एक दिन
 देखा था गाड़ी के अंदर
एक लड़के को
वह कभी ठहाके लगाता
कभी बाँये दाँये देखता
सर हिलाता
कुछ बोलता
फिर हँसता .... मुझे पक्का विश्वास हो गया
कोई पागल है !
बच्चों से कहा
तो वे किसी बुद्धिजीवी की तरह बोले
... क्या माँ !
अरे वह इयरफोन लगाए हुए है
वो देखो कान में .....
मैंने कहा,
हाँ हाँ चलो ठीक है
लेकिन इस तरह अकेले गाड़ी में
पागल ही लग रहा है !

फिर यह इयरफोन
सबके कान के स्विच बोर्ड में लगा हुआ
घूमने लगा
अकेले बोलते हुए
सब आसपास से दूर हो गए
किसी को किसी की ज़रूरत नहीं रही
दूर के ढोल सुहाने लगते हैं
हर पल चरितार्थ होने लगा !

लोकल बातचीत
इंटरनेशनल बातचीत
वाट्सएप्प
वीडियो कॉल
सबकुछ इतना आसान
इतना आसान हो गया
कि शिकायतें बढ़ गईं
मिलने की उत्सुकता मिट गई
राजनीति
हत्या
शेरो शायरी
सबकुछ वायरल हो गया ....!

वाट्सएप्प के चमत्कारिक गोलम्बर पर
सब एकसाथ खड़े हो गए
नानी फैमिली
दादी फॅमिली
फैमिली ही फैमिली
ग्रुप ही ग्रुप
जहाँ
लेफ्ट हुए
इन हुए
लूडो फाड़ने सा खेल हो गया !

दुनिया ऐसी मुट्ठी में आई
कि मार्ग की सभी लाइनें अवरुद्ध हो गईं
.....!!!

19 सितंबर, 2017

चलो बच्चे बन जाओ




हर बार कहा
कहते आये हैं - बड़े हो जाओ
तुम बड़े हो गए
तुम बड़ी हो गई
तुम भी बड़ी हो गई
लेकिन मैं !
जब कहीं से हारी थकी
अपने स्वप्निल पंखों में छुपकर बैठती हूँ
तब सोचती हूँ
क्या सच में इस मायावी
दुनियादारी से भरी दुनिया में
तुम बड़े हो सके हो ?

वो जो बड़ा होना कहते हैं न
वो तुमलोग क्या
मैं ही नहीं हो पाई हूँ !
दुनिया प्रतिपल भाग रही
और हम
भागते हुए
एक दूसरे का हाथ पकड़ लेते हैं
फिर भी हमारी वह रफ़्तार नहीं होती
भागने का अर्थ है
सिर्फ अपने तक सिमटना
जो हम नहीं कर पाते
और हाथ छूटते ही
.... हम निष्प्राण हो जाते हैं !
........ ........ ........
बेहतर है
चलो बच्चे बन जाओ
मैं भी छोटी सी माँ बन जाती हूँ
कुछ शीशे छनाक से गिरें
कुछ शोर हो यूँ
किसने तोड़ा
हँसते हँसते कहीं छुप जाएँ
तुमलोगों के कुछ मन रह गए थे
चलो उनको पूरा करती हूँ

15 सितंबर, 2017

एक प्रतिमा मैंने भी गढ़ना शुरू किया है !



स्तब्ध हूँ
या .... विमुख हूँ
कि क्या हो रहा है !
या यह तो होना ही था !
वे तमाम लोग
जिनकी अपनी साख थी
भूल गए हैं दिनकर की पंक्तियाँ
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो ....
....
वे भूल गए हैं उस हुंकार को
जो भरी सभा को हतप्रभ कर दे
... कोई नहीं कहता
शर चाप शरासन साध मुझे
हाँ हाँ दुर्योधन बांध मुझे ...
बस 5 ग्राम की माँग करते हैं
और नहीं मिलने पर
मित्रता विनम्रता त्याग का उदाहरण देते हुए
आगे बढ़ जाते हैं !
कृष्ण की छोड़ो
अर्जुन या कर्ण बनने की भी
कोई गुंजाइश नहीं !!
पूरी सभा की आलोचना करते हुए
सब के सब पलायन करते हैं
....
नहीं नहीं इनमें कोई धृतराष्ट्र नहीं
ना ही गांधारी है कोई
सब खुद को संजय मानते हुए
जाने कौन सी कथा दुहरा रहे हैं
!!!
एक वक्त था
जब किसी में मैंने
व्याघ्र सी छवि देखी थी
उसे अब नकली व्याघ्र की पीड़ा में पाकर
मैं खुद से शर्मिंदा हूँ !

किसका डर ?
क्या खोने का डर ?
कौन सा सम्मानित सिंहासन है कहीं
जिसके भ्रम में
ये सब अपमान की अग्नि में झुलस रहे
और खुद को प्रहलाद मान रहे !

होलिका जलेगी ?
सत्य की जीत होगी ?
या एक ही शरीर मे
होलिका,शूर्पनखा,पूतना,ताड़का होगी ?
प्रश्न गंभीर है
परिणाम तो गम्भीर हो ही रहे हैं
आह्वान यदि गंगा का है
तो एक नदी
निर्बाध
खुद में प्रवाहित करनी होगी
जिस दिखावे के धर्म का विसर्जन हो रहा
उस विराट प्रतीकात्मक ईश्वर को
अपने भीतर आत्मसात करना होगा
...
 मानना होगा कि जिस शक्ति से
हम भाग चुके हैं
उसे हथियार बनाना है !
यह गलत
वह गलत
पूरी सरकार गलत कहने की जगह
हिसाबों का ब्यौरा देने की बजाय
खुद को खड़ा करना होगा
करोड़ों की मालकियत से उतरकर
 ज़मीन को प्रणाम करना होगा
ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं से नीचे आकर
ईमान की मिट्टी को छूकर
शपथ उठाना होगा
राम का गुणगान करने के बदले
दशहरा में रावण को जलाने से पूर्व
खुद में राम को प्रतिष्ठित करना होगा
रामराज्य लाना होगा
वरना तो सारे मुखौटे एक से हैं
कोई सीता को सरेआम घसीट रहा
कोई अपनी पत्नी को स्वयम ही
रावण के पास भेज रहा
और जो गिनेचुने अदृश्य चेहरे हैं
उनके लापता होने की खबर से
वे खुद भी अनजान हैं
और मैं
खुद की स्तब्धता
खुद की विमुखता से
शर्मिंदा हूँ
.....
अब इस प्रलाप के बाद
तुम इसे पलायन समझो
या महाभिनिष्क्रमण
वह तुम्हारी बौद्धिक स्थिति होगी
जिसे तुम गढ़ रहे होगे
....
एक प्रतिमा मैंने भी गढ़ना शुरू किया है ......... !!!


25 अगस्त, 2017

प्रश्नों के घने बादल कभी उत्तर बनकर नहीं बरसते




मन - मस्तिष्क - व्यवहार
जब सामान्य अवस्था से अलग हो
तो असामान्य करार कर देने से पूर्व
यह सोचना ज़रूरी है
कि यह असामान्य स्थिति आई
तो कहाँ से आई !
क्यों आई !
क्या यह अचानक एक दिन में हो गया ?
या यह नज़र आ रहा था
और हम नीम हकीम जान बनकर
पेट दर्द की दवा दे रहे थे
घरेलु इलाज के नुस्खे ढूँढ रहे थे  ....
....
या फिर छोटे बड़े ज्ञानी बन गए थे !!!

कोई भी बात
जो हम कह लेते हैं
... वह हूबहू वही बात कभी नहीं होती
जो हमारे भीतर उठापटक करती है !
क्षमताएं भी हर किसी की
अलग अलग होती हैं
और उसके साथ व्यवहार
अलग अलग होता है !
इस अलग व्यवहार के परिणाम भी
अलग अलग आते हैं
और इन सबके बीच
........ ........ ........
प्रश्नों का सिलसिला नहीं रुकता
लेकिन,
प्रश्नों से होगा क्या ?

हम जानते हैं
....
 हम जानते हैं
कि सामनेवाला जवाब जानता है,
लेकिन जवाब देगा नहीं ...
बल्कि उसकी दिशा बदल देगा .
तो इसका उपाय क्या है !
सोचना होगा,
क्या सहज दिखनेवाला
सचमुच सहज है ? ...

..... जिन जिन विषयों पर
हम ज्ञानियों की तरह
धाराप्रवाह बोलते जाते हैं,
वह सब महज एक ज्ञान है,
जी जानेवाली आंतरिक स्थिति नहीं !

झूठ बोलना गलत है ...
निःसंदेह गलत है क्या ?
क्या इसे दुहरानेवाला
कभी किसी झूठ का सहारा नहीं लेता ?
या एक दो बार बोला गया झूठ
झूठ नहीं होता ?
और यदि उसके झूठ का औचित्य है,
तो परिस्थितिजन्य हर झूठ का एक औचित्य है !

सच ... एक कठिन मार्ग है,
कोई उस पर न चला है, न चलेगा
जिसने कुछ पा लिया, वह सत्य हो जाता है
जो हार गया, वह असत्य ...

जब हम एक बीमार के आगे
ज्ञानी बन जाते हैं,
जोशीले शब्द बोलते हैं
तो ऐन उसी वक़्त
वे सारे जोशीले शब्द ज़हर भी उगलते हैं ...
मंथन कोई भी हो,
अमृत विष दोनों निकलते हैं !
फूँक फूँककर रखे गए कदमों के भी
घातक परिणाम आते हैं !


आत्महत्या कायरता है, यह एक बोझिल वाक्य है ...
 तब तो महाभिनिष्क्रमण भी एक कायरता है !
एक कायर जब अपने मरने की योजना बनाता है,
उस वक़्त उसकी मनःस्थिति
उग्र हो या शांत,
वह अपनेआप में होता ही नहीं !
एक फ़िक़रा बोलकर
हाथ झाड़कर
आप बुद्धिजीवी हो सकते हैं
किसी को बचा नहीं सकते  ...

खामोश होकर देखिये
अधिक मत बोलिये
देखभाल करनेवाले की स्थिति को वही समझ सकता है,
जो प्यार और रिश्तों को समझ सकता है
वैसे समझकर भी क्या,
सब अपनी समझ से सही ही होते हैं  ...

कभी इत्मीनान से सोचियेगा
कि हर आदमी
कोई न कोई व्यवहार
भय से करता है
ओह ! फिर सवाल -
भय कैसा ?
नहीं दे सकते इसका जवाब,
नहीं देना चाहते इसका जवाब
नहीं दिया जा सकता इसका जवाब
आप अगर अपने प्रश्नों की गुत्थियाँ सुलझा सकते हैं
तो आप महान हैं
अन्यथा सत्य यही है
कि प्रश्नों के घने बादल
कभी उत्तर बनकर नहीं बरसते
कुछ बूंदें जो शरीर पर पड़ती हैं
उन्हें पोछकर
कतराकर
हर कोई आगे बढ़ जाना चाहता है
एक मौत के बाद
बड़ी बड़ी आँखों के साथ
कहानी सुनने के लिए  ...

18 अगस्त, 2017

अक्षम्य अपराध




उसने मुझे गाली दी
.... क्यों?
उसने मुझे थप्पड़ मारा
... क्यों ?
उसने मुझे खाने नहीं दिया
... क्यों ?
उसने उसने उसने
क्यों क्यों क्यों
और वह ढूँढने लगी क्यों  का उत्तर
                           -----
क्यों" की भृकुटि तनी
कहाँ से मुझे ढूँढेगी यह
मैं था कहाँ !!!
मुझे ही खुद को ढूँढना होगा
अटकलें लगानी होगी
...
मैं था  ...
शायद  ...
इसके बचपने में
इसकी खिलखिलाहट में
इसके बेहिसाब प्यार में
इसके कर्तव्य में
इसके सपनों में
दूसरों के सपनों को हकीकत बनाने की लगन में
इसके यह सोचने में
कि
सब ठीक हो जाएगा
अर्थात
इसकी आशा में
नकारात्मकता के आगे भी सकारात्मकता में
...
इसे पता ही नहीं था
कि ये सारे कारण अक्षम्य अपराध थे
भूखे यातना न सहती
तो क्या इनाम पाती !!!

15 अगस्त, 2017

ये तो मैं ही हूँ !!!





आज मैं उस मकान के आगे हूँ
जहाँ जाने की मनाही थी
सबने कहा था -
मत जाना उधर
कमरे के आस पास
कभी तुतलाने की आवाज़ आती है
कभी कोई पुकार
कभी पायल की छम छम
कभी गीत
कभी सिसकियाँ
कभी कराहट
कभी बेचैन आहटें .....
..............
मनाही हो तो मन
उत्सुकता की हदें पार करने लगता है
रातों की नींद अटकलों में गुजर जाती है
किंचित इधर उधर देखकर
उधर ही देखता है
जहाँ जाने की मनाही होती है !
...........
आज मैंने मन की ऊँगली पकड़ कर
और मन ने मेरी ऊँगली पकड़
 उधर गए
जहाँ डर की बंदिशें थीं  ...
.........
मकान के आगे मैं - मेरा मन
और अवाक दृष्टि हमारी !
यह तो वही घर है
जिसे हम अपनी पर्णकुटी मानते थे
जहाँ परियां सपनों के बीज बोती थीं
और राजकुमार घोड़े पर चढ़कर आता था
....
धीरे से खोला मैंने फूलों भरा गेट
एक आवाज़ आई -
'बोल बोल बंसरी भिक्षा मिलेगी
कैसे बोलूं रे जोगी मेरी अम्मा सुनेगी '
!!! ये तो मैं हूँ !!!
आँखों में हसरतें उमड़ पड़ी खुद को देखने की
दौड़ पड़ी ....
सारे कमरे स्वतः खुल गए
मेरी रूह को मेरा इंतज़ार जो था
इतना सशक्त इंतज़ार !
कभी हंसकर , कभी रोकर
कभी गा कर ......
बचपन से युवा होते हर कदम और हथेलियों के निशां
कुछ दीवारों पर
कुछ फर्श पर ,
कुछ खिड़कियों पर थे जादुई बटन की तरह
एक बटन दबाया तो आवाज़ आई
- एक चिड़िया आई दाना लेके फुर्र्र्रर्र्र...
दूसरे बटन पर ....
मीत मेरे क्या सुना ,
कि जा रहे हो तुम यहाँ से
और लौटोगे न फिर तुम .....'
यादों के हर कमरे खुशनुमा हो उठे थे
और मन भी !
..... कभी कभी ....
या कई बार
हम यूँ हीं डर जाते हैं
और यादों के निशां
पुकारते पुकारते थक जाते हैं
अनजानी आवाजें हमारी ही होती हैं
खंडहर होते मकान पुनर्जीवन की चाह में
सिसकने लगते हैं
...... भूत तो भूत ही होते हैं
यदि हम उनसे दरकिनार हो जाएँ
मकड़ी के जाले लग जाएँ तो ....
किस्से कहानियां बनते देर नहीं लगती
पास जाओ तो समझ आता है
कि - ये तो मैं ही हूँ !!!


10 अगस्त, 2017

- छिः ! ...




सफलता
सुकून
दृढ़ता के पल मिले
तो उसके साथ साथ ही
कहीं धरती दरक गई  ....
मुस्कुराते हुए
कई विस्फोट जेहन से गुजरते हैं
यूँ ही किसी शून्य में
आँखों से परे
मन अट्टहास करता है
...
कभी अपने मायने तलाशती हूँ
कभी अपने बेमानीपन से जूझती हूँ
होती जाती हूँ क्रमशः निर्विकार
गुनगुनाती हूँ कोई पुराना गीत
खुद को देती हूँ विश्वास
कि ज़िंदा हूँ !
....
इस विश्वास से कुछ होता नहीं
जीवन पूर्ववत उसी पटरी पर होती है
जहाँ खानाबदोशी सा
एक ठिकाना होता है
... खुली सड़क
भीड़
सन्नाटा
अँधेरा
डर में निडर होकर
गहरी उथली नींद
सुबह के बदले
दिन चढ़ आता है
और कुछ कुछ काम
जो होने ही चाहिए - हो जाते हैं !

बाह्य समस्या हो न हो
आंतरिक,
मानसिक समस्या इतनी है
कि कहीं जाने का दिल नहीं करता
सोचो न ,
ब्रश करना पहाड़ लगता है
नहाना बहुत बड़ा काम लगता है
खाना इसलिए
कि खाना चाहिए
हूँ -
पर अपनी उपस्थिति
प्रश्न सी लगती है
या उधार की तरह
...
 मंच पर जाने से पहले
एक सामान्य चेहरा
सामान्य मुस्कुराहट का मेकअप
कर लेती हूँ
किसी को कोई शिकायत न हो
खामखाह कोई प्रश्न न कौंधे
इस ख्याल से
मैं सबसे ज्यादा खुश नज़र आती हूँ
इतना
कि कई बार खुद की तस्वीर देखकर
धिक्कारती हूँ
- छिः !

06 अगस्त, 2017

आत्मचिंतन - सिर्फ एक कोशिश !!!





आत्मचिंतन
==========
मेरी आत्मा का चिंतन है
कभी सीधे
कभी टेढ़े
कभी भूलभुलैया रास्तों से
कभी ...,!
लहू को देखकर
लहूलुहान होकर
पंछियों को देखकर
पंछी,चींटी सा बनकर
कभी शेर की चाल देखकर
कभी गजगामिनी के रूप में
कभी लोहे के पिंजड़े में
दहाड़ते शेर को देखकर
हास्य कवि के मुख से
हास्य को जाता देखकर
कभी खिलखिलाने वाले के
सच को देख समझकर
सूक्तियों को पढ़कर
मुखौटों की असलियत में
...
कुछ न कह पाने की स्थिति में
होता है यह चिंतन
.... जो न संज्ञा समझता है
न सर्वनाम
न एकवचन
न बहुवचन
.... होता है सिर्फ चिंतन
खुद को समझाने की
और औरों को समझने की छोटी सी कोशिश
सिर्फ एक कोशिश !!!

01 अगस्त, 2017

मानवीय समंदर




मैंने जो भी रिश्ते बनाये
उसकी नींव में सच रखा
ताकि भविष्य में कोई गलतफहमी ना हो !!!
...
ऐसा नहीं था
कि सच कहते हुए
मुझे कुछ नहीं लगा
बहुत कुछ लगा ...
नए सिरे से ज़ख्म हरे हुए
खुशियों ने सर सहलाया
लेकिन,
!!!!!
खुशियों के आगे ईर्ष्या और चाल खड़ी हो गई
दर्द की चिन्दियाँ उड़ीं
दर्द सहने की ताकत पर
कुटिलता के वाण चले
...
आहत होते होते
मैंने अपनी लगन को समेटा
जिनके वाण अधिक नुकीले थे
उन्हीं चालों से
चक्रव्यूह से निकलने की शिक्षा ली
सीखी मैंने बाह्य निर्विकारिता
अपनी सहज मुस्कान में
...
निःसंदेह
मेरे भीतर द्वंद की लहरें
मेरे दिलो दिमाग के किनारों पर
सर पटकती हैं
लेकिन  ... लहरों का सौंदर्य
एक अद्भुत रहस्य बनाता है
अनजाने
संभवतः अनचाहे
उसके आगे
एक छोटा समूह
खड़ा होता है
सच की नींव पर अडिग
मानवीय समंदर देखने को  ... !!!



29 जुलाई, 2017

दर्द एक तिलिस्म है




दर्द एक तिलिस्म है
जितना सहो
उतने दरवाज़े
उतने रास्ते
...
बन्द स्याह कमरों में
घुटता है दम
चीखें
आँसू
निकलने को आतुर होते हैं
कई अपशब्द भी
दिमाग में कुलबुलाते हैं
लेकिन
मंथन होता रहता है
उनके और समय पर दी गई सीख का  ...
और एक दिन
निःसंदेह तयशुदा वक़्त में
जब अँधेरा
पूरी तरह
बुरी तरह निगल लेता है
एक रौशनी निकलती है
और
बिना कुछ कहे
रास्तों पर खड़ी कर देती है
... बढ़ो,
जो मुनासिब लगे उस पर !!!

22 जुलाई, 2017

शंखनाद करो कृष्ण




नहीं अर्जुन नहीं
मै तुम्हारी तरह
गांडीव नीचे नहीं रख सकती
ना ही भीष्म की तरह
वाणों की शय्या पर
महाभारत देख सकती हूँ
...
कर्ण तुम मेरे भीतर जीते हो
लेकिन मैंने अपनी दानवीरता पर
थोड़ा अंकुश लगाया है
एड़ी उचकाकर देख रही हूँ
तुम कहाँ सही थे
और कहाँ गलत !!!

कृष्ण
तुम मेरे सारथि रहो
यह मैंने हमेशा चाहा है
... पर मुझे बचाने के लिए
कर्ण के रथ से दूर मत ले जाना
मैं जीत अपने सामर्थ्य से चाहती हूँ
और तुम्हारा साथ होना
वैसे भी मेरी जीत है !

आवेश में मैं कोई भी प्रण नहीं लूँगी
जिसके साथ ब्रह्मांड हो
उसे आवेश में आने की ज़रूरत भी नहीं

सिर्फ लक्ष्य मेरे आगे है
सिर्फ लक्ष्य
शंखनाद करो कृष्ण
शंखनाद करो ...

15 जुलाई, 2017

खुली किताब और




मैं एक खुली किताब हूँ
लेकिन
वक़्त की चाल से प्रभावित होकर
कुछ पन्ने मैंने इसके फाड़ दिए हैं
और कुछ चिपका दिए हैं
कुछ खुली हुई बातों को
मैने रहस्य का जामा पहना दिया है
ताकि होती रहें कुछ अनुमानित बौद्धिक बातें
काटा जाए उसे तर्क कुतर्क से
क्या होगा
क्या होना चाहिए था
क्या हो सकता था ... एक शगल चलता रहे !

बिल्कुल खुली किताब में भी
अनुमान की अटकलें थीं
और सत्य के आगे - अनुमान
सहन नहीं होता न
तो मैंने
ऐसा ही करना मुनासिब समझा !
क्योंकि,
कचरे की ढेर सा
सच अपनी जगह रहता है
जैसे कोई भूखा
कचरे से अन्न का दाना ढूँढ लेता है
वैसे ही सच समझनेवाले
सच को चुपचाप पढ़ लेते हैं ...
.... किताब खुली हो या पन्ने फ़टे हों
वे पढ़ ही लेते हैं !!!

09 जुलाई, 2017

इमरोज़ ........ अमृता





इमरोज़ कहते हैं,
अमृता मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिखती थी
तो क्या हुआ !

इस सुलगते प्रश्न का जवाब इमरोज़ के पास ही है
...
सीधी सी बात है,
सत्य कड़वा होता है
और इस कड़वे सत्य को कहकर
इमरोज़ इमरोज़ नहीं रह जाते !
==================================================

"अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी. अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में वो लिखती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे. साहिर के जाने के बाद वो उनकी सिगरेट की बटों को दोबारा पिया करती थीं.
इस तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लगी. अमृता साहिर को ताउम्र नहीं भुला पाईं और इमरोज़ को भी इसका अंदाज़ा था. अमृता और इमरोज़ की दोस्त उमा त्रिलोक कहती हैं कि ये कोई अजीब बात नहीं थी. दोनों इस बारे में काफ़ी सहज थे"

ऐसे प्रेम को अमृता भूल गईं, यूँ कहें - बाँट दिया।
और इमरोज़ ने खुद को तिरोहित कर लिया, अमृतामय हो गए, ऐसा व्यक्ति तपस्वी कहा जाता है।

एक पुरुष अपनी पत्नी की मर्ज़ी नहीं समझता, इमरोज़ ने अमृता की मर्ज़ी में अपनी मर्ज़ी को खत्म कर दिया।
प्रश्न है -
क्या अमृता साहिर से दूर होकर भी साहिर की होकर नहीं रह सकती थीं ?

लोग कहते हैं कि साहिर की ज़िन्दगी में सुधा मल्होत्रा आ गई थीं,
तो क्या हुआ ? साहिर ने उनकी पीठ पर अमृता का नाम तो नहीं लिखा।
======================================================

लोग सिर्फ वही देखते हैं, जो उन्हें दिखाया जाता है, पढ़ाया जाता है - पढ़ने और देखने के बाद एक अपना दृष्टिकोण भी होता है, किसी भी बात को हर कोण से देखने की और समझने की !
खुद को वक़्त देकर दृष्टि को हर कोण पर ले जाना होता है !
कोई मुकदमा भी वर्षों चलता है, यहाँ तो एक वह शख्स है, जो समाधिस्थ है, उम्र के बासंती मोड़ से।
उसने एक नाम लिया अमृता और निकल पड़ा इस भाव के साथ कि

"ना घर मेरा ना घर तेरा, चिड़िया रैन बसेरा !"

================================================


===============================================

 जिस दिन हौज ख़ास का घर बिक रहा था, जाने कितनी डूबती उतराती स्थिति में इमरोज़ ने मुझे फोन किया था,
"रश्मि, हौज ख़ास का घर बिक रहा है"
क्या ?
हाँ, बाद में बात करता हूँ
मेरी हिचकियाँ बंध गई थीं
.... इमरोज़ किसी खानाबदोश से कम नहीं लगे,
पर अमृता ने कहा था, तुम सबकुछ संभालना"  ... और वे बिना उफ़ किये सँभालते गए।  अमृता की सेवा की, उनके बेटे की चुप्पी के आगे भी खाना लेकर खड़े रहे।
ना मुमकिन नहीं इमरोज़ होना  ...
साहिर हुआ जा सकता है
अमृता हुआ जा सकता है
गीत और उपन्यास लिखे जा सकते हैं
लेकिन बिना कलम उठाये जो गीत इमरोज़ ने गुनगुनाया, जो पन्ने इमरोज़ ने लिखे - वह नामुमकिन है !

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मेरे कहने पर इमरोज़ ने मेसेज करना सीखा, नियम से फोन करते रहे, मेरे घर आए  ... मैं क्या हूँ ! लेकिन इमरोज़ का आना, मुझे "कुछ" बना गया।  जब डाकिया उनका लिफाफा लेकर आता है, तो उसे खोलकर मैं 90 के करीब पहुँचे इमरोज़ को देखती हूँ, - लिफाफे पर मेरा नाम, मेरा पता लिखते हुए , ...
2010 में जब मैं उनसे पहली बार मिली थी तो बुक फेयर में मेरे साथ गए इमरोज़, अपनी एक किताब स्टॉल से लेकर मुझे दी, अचानक रूककर कहा, "तुम बिल्कुल अमृता हो"  ... मैं मुस्कुराई थी,  ... लेकिन मैं अमृता  होना नहीं चाहती, मैं रश्मि हूँ,वही रहना चाहती हूँ, जो इमरोज़ के खुदा होने पर यकीन करती है।  
इमरोज़ ! जीवन की, प्रेम की, त्याग की अग्नि में जलकर कुंदन होते रहे, जलते हुए कैसा लगा, कभी नहीं बताया, निखरकर सामने खड़े होते रहे, राख को जाने कहाँ, कैसे छुपा दिया !
लेकिन मैंने देखा है उस राख को - उनकी स्निग्ध मुस्कान में, उनकी बातों में, उनके चलने में, उनके अनुत्तरित चेहरे में।

उस वक़्त की पोटली के गुच्छों में बंधे कई नाम हैं, लेकिन जो चमकता है, वह है इमरोज़ !
मेरे लिए, मेरे मन में, मेरी ज़ुबान पर - सिर्फ इमरोज़ !!!


08 जुलाई, 2017

हम अपनेआप से भागते हैं




अक्सर
हम लोगों से नहीं
अपनेआप से भागते हैं
कहीं न कहीं डरते हैं
अपनी विनम्रता से
अपनी सहनशीलता से
अपनी दानवीरता से
अपनी ज़िद से
अपने आक्रोश से
अपने पलायन से  ...
बस हम मानते नहीं
तर्क कुतर्क की आड़ में
करते जाते हैं बहस
...
हम हारना नहीं चाहते
हम जीत भी नहीं पाते
क्योंकि हम
अपनी हर अति" के आगे
घुटने टेक
खुद को सही मान लेते हैं !!!

01 जुलाई, 2017

मैं रश्मि प्रभा अपनी कलम की अभिव्यक्ति के संग .




1 जुलाई को मान्य ब्लॉगर ने ब्लॉग दिवस बताया तो मन 2007 की देहरी पर चला गया, 
, प्रत्येक ब्लॉगर से जुडी कितनी यादें, कितने नाम सामने आ खड़े हुए  और कलम ने कहा - 


कुछ लोग लिखते नहीं 
नुकीले फाल से 
सोच की मिट्टी मुलायम करते हैं 
शब्द बीजों को परखते हैं 
फिर बड़े अपनत्व से 
उनको मिट्टी से जोड़ते हैं 
उम्मीदों की हरियाली लिए 
रोज उन्हें सींचते हैं 
एक अंकुरण पर सजग हो 
पंछियों का आह्वान करते हैं 
 नुकसान पहुँचानेवाले पंछियों को उड़ा देते हैं 
कुछ लोग -
प्रथम रश्मियों से सुगबुगाते कलरव से शब्द लेते हैं 
ब्रह्ममुहूर्त के अर्घ्य से उसे पूर्णता दे 
जीवन की उपासना में 
उसे नैवेद्य बना अर्पित करते हैं 
.....
कुछ लोग लिखते नहीं 
शब्दों के करघे पर 
भावों के सूत से 
ज़िन्दगी का परिधान बनाते हैं 
जिनमें रंगों का आकर्षण तो होता ही है
बेरंग सूत भी भावों के संग मिलकर 
एक नया रंग दे जाती है 
रेत पर उगे क़दमों के निशां जैसे !...
                          .......................................................................................................                                     

कवि कभी गोताखोर 
कुशल तैराक
तो कभी किनारे 
अबूझ भाव तैरने की चाह लिए 
सोचता है- कैसे तैरुं !
कभी सागर की बेबाक लहरों पर भी वह बहता जाता है
इस किनारे से उस किनारे 
और कभी - लहरें जानलेवा हो जाती हैं 
शब्द साँसें भावशून्यता की स्थिति में
कृत्रिम साँसों की तलाश में भटकती हैं ...
'सुनी इठ्लैहें लोग सब ...'
कहनेवाला कवि 
चीखता है .....
इठलाते क़दमों को मनोरोगी की तरह देखता है 
फिर अचानक रेत के पिजड़े में खुद को बन्द कर देता है 
यह उसकी खुशकिस्मती 
रेत के भीतर उसे अपने से उजबुजाये चेहरे मिल जाते हैं 
और यही होता है प्रभु का करिश्मा 
उस पिंजड़े से सभी निकल आते हैं 
शब्दों की ऊँगली थामकर 
...... 
ये असली कवि सच्ची मित्रता निभाते हैं 
और सच बोलते हैं 
इतना सच  
कि इठ्लानेवालों के कदम थक जाते हैं !!!
आकाशीय विस्तार मिलकर ही मिलता है 
पिंजड़ा तभी टूटता है 
ऐसा मुझे लगता है ....
              .............................................................................. और जब पिंजडा टूटता है तो बुत तस्वीरों की अनकही बातें सुनाई देती हैं .

कोई प्रेम का मारा 
कोई दर्द का 
कोई सपनों का 
कोई रिश्तों का 
कोई मिट्टी का 
कोई साँसों का ............. जैसी ज़िन्दगी होती है , तस्वीर उसी तरह बोलती है ....

कभी सकारात्मक
कभी नकारात्मक
कभी हतप्रभ
कभी मकड़ी के जाले सी ....

#हिन्दी_ब्लॉगिंग 

25 जून, 2017

रामायण है इतनी




रूठते हुए 
वचन माँगते हुए 
कैकेई ने सोचा ही नहीं 
कि सपनों की तदबीर का रुख बदल जायेगा 
दशरथ की मृत्यु होगी 
भरत महल छोड़ 
सरयू किनारे चले जायेंगे 
माँ से बात करना बंद कर देंगे  ... !
राजमाता होने के ख्वाब 
अश्रु में धुल जायेंगे !!

मंथरा की आड़ में छुपी होनी को 
बड़े बड़े ऋषि मुनि नहीं समझ पाए 
 तीर्थों के जल 
माँ कौशल्या का विष्णु जाप 
राम की विदाई बने  !!!

एक हठ के आगे
राम हुए वनवासी 
 सीता हुई अनुगामिनी 
लक्षमण उनकी छाया बने  ... 
उर्मिला के पाजेब मूक हुए 
मांडवी की आँखें सजल हुईं 
श्रुतकीर्ति स्तब्ध हुई  ... 
कौशल्या पत्थर हुई 
सुमित्रा निष्प्राण 
कैकेई निरुपाय सी 
कर न सकी विलाप 

इस कारण 
और उस कारण 
रामायण है इतनी 
होनी के आगे 
क्या धरती क्या आकाश 
क्या जल है क्या अग्नि 
हवा भी रुख है बदलती 
पाँच तत्वों पर भारी 
होनी की चाह के आगे 
किसी की न चलती  ... 

21 जून, 2017

शीशम में शीशम सी यादें




छोड़ कैसे दूँ
उस छोटे से कमरे में जाना
जहाँ
पुरानी
शीशम की आलमारी रखी है
धूल भले ही जम जाए
जंग नहीं लगती उसमें  ... !
न उसमें
न उसमें संजोकर रखी गई यादों में
!
जब भी खोलती हूँ
एक सोंधी सी खुशबू
चिड़िया सी फड़फड़ाती
कभी मेरी आँखों को मिचमिचा देती है
कभी कंधे पर बैठ
कुछ सुरीला सा गाती है
कभी चीं चीं के शोर से
आजिज कर देती है  ...
!
लेकिन अगर जाना छोड़ दूँ
तो
अनायास मुस्कुराने का सबब
कहीं खो जायेगा
छुप जायेगा बचपन
किसी कोहरे में
अमरुद की डालियाँ
कच्चे टिकोले
लू में कित कित खेल की ठंडक
पानीवाला आइसक्रीम
कान का उमेठा जाना
और  ...
फिर से शैतानियों को दुहराना !

ये शीशम की लकड़ी से बना
यादों का ख़जाना
रुलाता है
हंसाता है
कहता है -
अगर घुटने छिले थे
तो शैतानियों का रंग भी लगाया था न सबको
अंतराक्षरी
स्टेज शो
माँ का आँचल
पापा की मुस्कुराहट
जाने क्या क्या रखा है मुझमें तुमने ही  ...

सच है
जाने कितने चेहरे
कितनी खिलखिलाहटें
कितने झगड़े
कितनी शिकायतें
शीशम की आलमारी में है
इस छोटे से कमरे का वजूद
इस ख़ज़ाने से ही है
न आऊँ किसी दिन
तो कुछ खोया खोया सा लगता है
खोना तो है ही एक दिन
उससे पहले पाने का सुख क्यों खो दूँ
छोड़ कैसे दूँ
उस छोटे से कमरे में जाना !!!

16 जून, 2017

सौ बार धन्य है वह लवकुश की माई




 मैं शबरी
फिर प्रतीक्षित हूँ
कि राम आयें  ...
...
नहीं नहीं
इस बार कोई जूठा बेर नहीं दूँगी
मीठा हो या फीका
यूँ ही दे दूंगी खाने को
नहीं प्रदर्शित करना कोई प्रेम भाव
मुझे तो बस कुछ प्रश्न उठाने हैं

- "हे राम
तुमने अहिल्या का उद्धार किया
कैकेई को माफ़ किया
उनके खिलाये खीर का मान रखा
 चित्रकुट में सबसे पहले उनके चरण छुए
जबकि उनकी माँग पर ही
राजा दशरथ की मृत्यु हुई थी
...
फिर सीता की अग्नि परीक्षा क्यूँ ?
किसकी शान्ति के लिए ?
सीता का त्याग
किसकी शान्ति के लिए ?
प्रजा के लिए ?
मर्यादा के लिए ?

हे राम,
उस प्रजा को
रानी कैकेई के चित्रकुट जाने पर
 कोई ऐतराज नहीं हुआ था ?

जिस सीता के आगे
रावण संयमित रहा
उस सीता के आगे
उनके अपने !!!
कलयुग का अँधा कानून कैसे बन गए ?
ऐसा था -
तो जिस तृण ने
माँ सीता का मान रखा था
क्या उस तृण की गवाही नहीं हो सकती थी ?
त्रिजटा थी उस अशोक वाटिका में
उससे ही पूछ लेना था सच !!

हे प्रभु
तुम्हें तुम्हारे रघु कुल की कसम
सच सच बताना
अगर अग्नि परीक्षा में माता जल जाती
तो क्या उनका सतीत्व झूठा हो जाता ?"

देखूँ - राम के न्यायिक शब्द
उनके मन के किस गह्वर से निकलते हैं
जिन्होंने कहा था,
सौ बार धन्य है वह एक लाल की माई
जिस जननी ने है जना भरत-सा भाई।"(मैथिलीशरण गुप्त )

मैं शबरी आज कहना चाहती हूँ
"सौ बार धन्य है वह लवकुश की माई
जिसने वन में उनको कुल की मर्यादा सिखलाई"



04 जून, 2017

एक उम्र की दिनचर्या और सोच




चलो कहीं बाहर चलते हैं
सुनते ही मन खाली हो जाता है
दूर दूर तक
कोई सीधी सड़क नज़र ही नहीं आती
न पेड़ों का समूह
न अपनेपन की हवा
बड़बड़ाने जैसा
होठों से फिसलते हैं शब्द
- कहाँ जाना !!!

जानती हूँ,
यह अच्छी बात नहीं
पर,
पहले जैसी कोई बात भी तो नहीं
न किसी से मिलने का मन
न बातों का सिलसिला
अकेला रूम अब आदत में शुमार है !

एक कुर्सी
कुछ भी खाने के लिए
शाम का इंतज़ार
बीच बीच में फ़ोन
छोटी
लम्बी बातचीत  ...
बाहर सबकुछ शांत
भीतर हाहाकार
!!!
प्रश्नों का सैलाब
यादों की लहरें
अनहोनी की सुनामी
कभी आँखें शुष्क रह जाती हैं
कभी होती हैं नम
कुछ बताते हुए किसी को
अचानक लगता है,
क्या व्यर्थ साझा किये जा रहे
... इसी तरह
रोज रात आ जाती है
घड़ी पर नज़र जाते
दिल धक से बैठ जाता है
कुछ दवाइयाँ गुटक कर
टुकुर टुकुर छत देखते हुए
करवट लेती हूँ
बीच में पुनः करवट बदलने के दरम्यान
यह ख्याल मन को सुकून देता है,
वाह, मुझे नींद आ गई थी !
कब?
हटाओ यह प्रश्न
 आ गई - यह बड़ी बात है
और एक नया दिन फिर सामने है  ...

15 मई, 2017

वह लड़का




कहानी के काल्पनिक पात्रों को
परदे पर देखकर
हमने बहुत आँसू बहाये
बड़ी बड़ी बातें की
बड़े बड़े लेखकों के विषय में
अपनी अपनी जानकारी के पन्ने खोले
...
लेकिन वह लड़का
जो अचानक हादसे की चीख से
अपनों के आँसुओं के बीच से
सुरक्षित दूर भेज दिया गया
उसके बारे में किसी ने सोचा ?!

लड़ते-झगड़ते
डरते खेलते
सुरक्षा के नाम पर
वह बहुत अकेला हो गया !
किसने मज़ाक बनाया
किसको देखकर
उसके मन में क्या आया
हादसे की चीखें उसके मन से
किस तरह गुजरती रहीं
वक़्त पर वह बाँट नहीं पाया  ...
बस करता रहा छुट्टियों का इंतज़ार
और जब खत्म हो गई छुट्टियाँ
वह समझदारी के लिबास में
लौटता रहा  ... !

उम्र कहाँ रूकती है
गिरते-उठते
न उठना चाहो
तब भी उठकर
आगे बढ़ ही जाती है
ठहरा रह जाता है
वह अनकहा
जो सबकी बातों में
अपने अकेले हो गए बचपन को
एक बार देखना चाहता है
क्षणांश के लिए ही सही
उन वर्षों को जीना चाहता है
कुछ कहना चाहता है ! ...

कभी तौला है अपने एकांत में
अपनी अनुमानित आलोचनाओं से हटकर
कि
उसकी भी कुछ इच्छाएँ होंगी
उसके उतार-चढ़ाव ने
उसे भी बोझिल किया होगा
उसके आवेश में
उसकी भी मनःस्थिति होगी
या चलो आदत ही सही
जिसे अपने लिए सोचकर
मुहर की तरह जायज बना दिया हमने !
...
अनदेखे पात्रों को
गहराई से सोचकर क्या
यदि हमने देखे हुए
साथ चले हुए शख्स को
गहराई से नहीं लिया  ...

 मेरी नज़र से
हमारे भीतर कोई समंदर नहीं
कोई नदी नहीं
हाँ,
छोटे छोटे गड्ढे हैं
जो समय-असमय की बारिश में
पल में भरते हैं
पल में खाली हो जाते हैं
... --- ===


10 मई, 2017

मेरे होने का प्रयोजन क्या है !!!



प्रत्यक्ष मैं
एक पर्ण कुटी हूँ
जहाँ ऐतिहासिक महिलाओं के
कई प्रतीक चिन्ह
खग की तरह
विचरण करते हैं  ...
खुद से परोक्ष मैं
नहीं जानती
मैं हूँ कौन !
क्या हूँ !
क्या है प्रयोजन मेरे होने का !

मेरी आत्मा
एक विशाल हवेली
अदालत की शक्ल लिए
बड़ी बड़ी आँखों से देखती
न्याय की देवी
और चित्रित स्त्रियाँ  ...
अनवरत मौन चीखें
सिसकियाँ  ...
कितनी अजीब बात है
भगवान बना दी गईं
ग्रन्थ में समा गईं
पर !!!
कोई खुश नहीं !

नाम मत पूछना
उन्हें अच्छा नहीं लगेगा
किसी के वहम को नहीं तोड़ना चाहतीं
लेकिन,
सुकून के लिए
वे हर दिन
पक्ष-विपक्ष में
अपनी दलीलें प्रस्तुत करती हैं
न्याय की देवी की भरी आँखों में
एक न्यायिक फैसला देखती हैं
और
एक उम्मीद की कुर्सी पर बैठे हुए
अदालत में ही सो जाती हैं !

कुछ तो है प्रयोजन
मेरे होने का !!!

07 मई, 2017

कुछ ऐसा लिखूँ




मैं चाहती हूँ
कि मैं कुछ ऐसा लिखूँ
जिसमें से ध्वनि तरंगित हो
एक घर दिखाई दे
दिखे चूल्हे की आग
तवे पर रोटी
जो भूख मिटा दे
बुनकरों की विद्युत गति
जिसमें कृष्ण की हथेलियों का आभास हो
और हर जगह द्रौपदी की लाज रह जाए ...
लिखना चाहती हूँ कुछ ऐसा
जिसमें कर्ण जीवित हो उठे
उसके कवच कुंडल उद्घोष करें
उसके क्षत्रिय होने का !
परशुराम का क्रोध शांत हो जाए
और वे अपने शिष्य की निष्ठा को
एक नया आयाम दे जाएँ !
द्रोणाचार्य
एकलव्य का जयघोष करें
अर्जुन उसके आगे नतमस्तक हो
महाभारत महानयुग हो जाये
पितामह हस्तिनापुर का भाग्य लिखें
धृतराष्ट्र की आंखें बन जायें ..
लिखना चाहती हूँ
वह रामायण
जिसमें राम लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न
सबकी पैजनियों की आवाज़ सुनाई दे
खीर का बँटवारा समान रूप से हो
मन्थरा का जन्म ही न हो
कैकेई का मातृत्व स्तंभ बने
उर्मिला अपनी उम्र को संगीतमय बना ले ..
लिखना चाहती हूँ
कलयुग का परिष्कृत रूप
जिसमें गुरुकुल की महिमा हो
अपशब्द न हों
हर घर में अमृत हो ...
मैं कलम में तब्दील होना चाहती हूँ
अपने भीतर श्री गणेश का आह्वान करती हूँ

03 मई, 2017

दृष्टिकोण - रहस्यमय भविष्य !





ताजमहल क्या है ?
अतीत की कब्र पर एक खूबसूरत महल !
जिसके सामने
आगरा के क़िले के शाहबुर्ज में
शाहजहाँ 8 वर्ष तक क़ैद रहा  ...
हर दिन
पर्यटकों से भरा रहता है
ताजमहल और आगरे का किला !
गाइड कहानियाँ सुनाते हैं
हम अचंभित
विस्फारित
आँखों से
आँखों देखा महसूस करते हुए
रोमांचित होते हैं
पर वर्षों की
आंतरिक
दहकती
ज्वालामुखी के लिए
कहते हैं
अतीत को भूल जाओ !!!
???
!!!
भूल जाओ !
अनसुना कर दो
चिंगारियों के चटकने की आवाज़ को
बेअसर हो जाओ
अंदर से आती चिरांध से
उन सारे मंजरों से
जो उस अतीत से उभरते हैं

क्योंकि इस इतिहास का अर्थ
हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता
इसके जीवित गाइड की कहानियों से
हम ऊब जाते हैं
क्योंकि उसे महसूस करना
हमारे वश की बात ही नहीं
हमारी इच्छा भी नहीं !
...
ज्वालामुखी दृष्टि से परे है
किसी विशेष ऐंगल से
कोई यादगार तस्वीर भी
नहीं ली जा सकती
शुक्ल पक्ष हो
चाहे कृष्ण पक्ष
- क्या फर्क पड़ता है !!!

ताजमहल
कब्र होकर भी
प्रेम का प्रतीक है
फिर प्रेम हो ना हो
गले में बाँहें डालकर
एक तस्वीर के साथ
सब अमर प्रेम हो जाना चाहते हैं !

शाहजहाँ कहाँ कैद था
इस बात से अधिक महत्वपूर्ण है
वह किस तरह निहारता था वहाँ से
ताजमहल को !
इंसान की फितरत
अतीत वर्तमान से परे
एक अनोखा रहस्य्मय भविष्य है
जिस पर अनुसन्धान ज़रूरी है  !!!  ...

29 अप्रैल, 2017

सिसकियों में शब्द गूँथना




तुम्हारी सिसकियों में शब्द ही शब्द थे
जिन्हें मैं सुनती रही
सिसकियाँ मेरी भी उभरी
निःसंदेह
उसमें मेरे आशीष के बोल थे !
...
मानती हूँ मैं
कि क्षणांश को
गुस्सा आता है
पर कई बार
उसकी अवधि बढ़ जाती है
शायद तभी
एक कमज़ोर रूह की मुक्ति
संभव होती हो  !

लेकिन इस मुक्ति के बाद
आसपास कई शून्य चेहरों का
होता है शून्य स्नान
जाने कितने शब्द अटके होते हैं
अवरुद्ध गले में
जाने कितने शब्द चटकते हैं
सिसकियों में
शरीर भी असमर्थ
रूह भी असमर्थ
!!!

भागता शरीर
ठहरा मन
बड़ी अजीब सी स्थिति होती है
... !!!
सुनो,
जब भी चाहो
सिसकियों में शब्द गूँथना
बीता हुआ वक़्त
गले लग जाता है
अच्छा लगता है  ...

15 अप्रैल, 2017

कहा था न ?




कहा था मैंने
शिकारी आएगा
जाल बिछाएगा ...
भ्रमित होकर
फँसना नहीं !

लेकिन शिकारी ने
तुम्हारी आदतों को परखा
पारदर्शी जाल बिछाया
दाने की जगह
 खुद जाल के पास बैठ गया
संजीदगी से बोला,
आओ ...
कुछ बातें करें !

आंखों में आंसू भरकर
वह कहानियाँ गढ़ता गया ...
तुम अपनी सच्ची ज़िन्दगी के पन्ने
मोड़ मोड़ कर हटाते गए
उसकी कहानियों में उलझते गए
और एक दिन
शिकारी के जाल में थे तुम !

बिना फँसे अनुभव नहीं होता
यह सोचकर
मैं तुम्हारा सर सहलाती गई
जाल को टटोलकर
काटती गई
लेकिन उसके धागे
तुम्हारे दिलो दिमाग को
महीनता से खुरच गए थे  ...
शिकारी का भय
तुम्हारी नींद उड़ा गया था
और मैं  ...
लोरी के सारे शब्द भूल गई !

उम्र बीतने लगी इस सोच में
कि
शिकारी को ढूँढूँ
उसके लिए जाल तैयार करूँ
या किसी जादुई मरहम से
सारे भय मिटा दूँ
खरोंच के निशान मिटा दूँ !!

लेकिन
जो हो जाता है
वह तो रह ही जाता है।
चेहरा सहज हो
चर्चा में शिकारी न हो
आगे के रास्तों पर कदम हो
फिर भी
मन और दिमाग
शिकारी और अपनी भूल को
याद रखता है  ...

तुम्हारे अनमने चेहरे का दर्द
मेरे एकांत में बड़बड़ाता है
कहा था न ?


12 अप्रैल, 2017

पापा तुम समझते क्यूँ नहीं ?




पापा 
आज मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है !

कहना है,
कि जब मैं हुआ 
और तुम मुझे अपनी गोद में लेकर 
इधर उधर घूमते थे 
तो दुनिया अपनी मुट्ठी में लगती थी !
सबकी उपस्थिति में 
मुझ अबोले को 
रहता था इंतज़ार 
तुम्हारे आने का। 
कॉल बेल बजते 
मेरे दिल में भी कुछ बजता था 
तुम्हारी पुकार पर 
मेरी मटकती आँखें बोलतीं 
पापाआआ  ... 
सोचो पापा 
मैं कितना समझदार था !
... 
घुटनों के बल चलकर 
जब मैं तुम्हारी ओर तेजी से आने लगा 
तुम विजयी मुस्कान से सबको देखते 
मैं तुम्हारी उस मुस्कान पर 
फ़िदा था 
तुम्हारी हर जीत 
मेरी जीत होती 
सोचो पापा 
मैं कितना समझदार था !
... 
धीरे धीरे मैं चलने लगा 
सीखने लगा 
कुछ शब्द 
कुछ अच्छी आदतें 
लेकिन 
तुम्हारी जीत की परिभाषा बदलने लगी 
तुम चाहने लगे 
मैं सबसे ज्यादा शब्द बोलूँ 
सबसे पहले बोलूँ 
किसी भी अजनबी के आते 
उसे प्रणाम करूँ 
सलीके से बैठूँ 
ताकि तुम्हारी तारीफ़ हो  ... !

मैं धीरे धीरे बड़ा होना चाहता था 
और तुम  ... 
जाने कैसा बड़ा मुझे बनाना चाहते गए 
कितना कुछ सिखाते गए 
और पापा 
तब मैं ऊब गया 
मेरी जिह्वा से
स्वाद खत्म हो गया 
मेरी चुप्पी
मेरी ज़िद्दी दोस्त बन गई 
आक्रोश दिखाते हुए तुम भूल गए 
कि अपनी उम्र के अनुसार 
मैं वह नहीं सीख सकता 
जो मेरी कल्पना को 
दूसरी दिशा दे दे  ... 
पापा 
कल्पनाएँ अपनी होती हैं 
उसकी कहानियाँ होती हैं 
उन्हें किसी और पर थोपा नहीं जाता 
खासकर किसी बच्चे पर !!

अब मैं रात दिन यही सोचता हूँ 
कि तुम 
हाँ पापा तुम -
कितने ज़िद्दी हो 
तुम समझना ही नहीं चाहते 
कि 
इतना आसान नहीं होता सिखाना 
गुस्से से तो बिल्कुल नहीं  ... 

सिखाने के लिए 
धैर्य का होना ज़रूरी होता है 
साथ साथ करना होता है 
बच्चे को उठाने के लिए 
झुकना होता है 
उसकी पसंद नापसंद को 
जानने और समझने के लिए 
उसे वक़्त देना होता है 
... 
अगर तुम मुझसे दुखी हो 
तो मैं भी तुमसे दुखी हूँ 
इस बात को 


पापा तुम समझते क्यूँ नहीं ? 

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...