29 दिसंबर, 2008

दुआओं के दीप........


आंसुओं की नदी में
मैंने अपने मन को,
अपनी भावनाओं को
पाल संग उतार दिया है.........
आंसुओं के मध्य
जाने कितनी अजनबी आंखों से
मुलाक़ात हो जाती है-
फिर उन लम्हों को पढ़ते हुए
मेरी आँखें
उनके जज्बातों की तिजोरी बन जाती हैं.........
जाने कितनी चाभियाँ
गुच्छे में गूंथी
मेरी कमर में,मेरे साथ चलती हैं.....
और रात होते
मेरे सिरहाने,
मेरे सपनों का हिस्सा बन जाती हैं,
जहाँ मैं हर आंखों के नाम
दुआओं के दीप जलाती हूँ !

23 दिसंबर, 2008

अम्मा के लिए......




मेरी कलम ने अम्मा के नाम लिखा है, पर यह एक आम सोच है..... क्रम जीवन का चलता रहता है , सोच जाने कैसे-कैसे रूप लेती रहती है ! बात उम्र की होती है या परिस्थितियों की........ पता नहीं , पर अपनी-अपनी धुरी पर सबकी
अपनी सोच होती है.........
एक प्रयास है हमारी भावना अम्मा के लिए---------------

हर दिन
एक शब्द तलाश करती हूँ
जो तुम्हे खुशी दे...........
मैं हार जाती हूँ, तुम्हारी निराशा के आगे
निराशा !?!
........ उम्र तो बढती ही जाती है
शरीर थकता ही जाता है
और फिर मुक्ति.....
यह तो शाश्वत क्रम है,
पर वजूद तो पूरी ज़िन्दगी का सार है !
.... अवश शरीर से यह मत सोचो
' अब मेरी क्या ज़रूरत ?'......
तुमने जो किया,
और हम जितने तुम्हारे करीब हैं
वैसा कईयों के हिस्से नहीं आता
....... सिर्फ़ यही महसूस करो
तो सुकून की बारिश से राहत मिलेगी !
माँ,
जिन चूजों को तुमने पंखों की ओट दी थी
उनके पंख भी ओट देते थक चले हैं
उनके पंखों की भाषा भी सीमित हो गई है !
पर उस भाषा में,
उनकी जिम्मेदारियों के मध्य तुम हो
और यह -
उनका गुरुर है ,
विवशता नहीं.....................

18 दिसंबर, 2008

कैसे कहें?


'जो बीत गई,वो बात गई........!'
अगर ऐसा होता रहा
तो पास क्या रह जाएगा !
आज की हर तस्वीर
कल की ही तो परछाईं है !
उसे मिटा दें
तो फिर जज्बातों,संवेदनाओं का क्या होगा !
वे सितारे जो टूटे
और हमने 'विश' माँगा
--उसे भूल जायें?
कैसे?
कैसे कह दें,
जो बीत गई...................

15 दिसंबर, 2008

ताउम्र का साथ !


बहार आए और थम जाए,
ऐसा होता नहीं है
और अगली बहार का इंतज़ार न हो
ये मुमकिन नहीं है .......
ज़िन्दगी को गर जीना है
तो मायूसी का दामन ना पकडो,........
मायूसी में-
खुशियों की आहटें गुम हो जाती हैं,
फिर लंबे समय तक
ये आहटें हमसे रूठ जाती हैं........
जीने के लिए-
दूसरों की खामियां न ढूंढो,
हंसने की ख्वाहिश है
तो अपनी खामियों के दस्तावेज़ खोलो..........
राहें तभी बनती हैं !
गुरुर की अवधि बड़ी छोटी होती है,
दीवारें रिसने में देर नहीं लगती,
संभालो ख़ुद को
खुशियों की आहटों को जानो
उठ जाओ
.....
खुशियों की अवधि कम ही सही
यादें बड़ी गहरी होती हैं,
ताउम्र साथ चलती हैं..........

06 दिसंबर, 2008

अलग-अलग परिणाम !!!


परिस्थितियाँ एक नहीं होतीं,
हादसे एक नहीं होते,
कोई मर जाता है,
कोई जी जाता है,
कोई ज़िन्दगी खींच लेता है !
किसी के हिस्से गंगा आती है
कहीं यमुना
कहीं नाले का गन्दला पानी........
कोई गंगा की लहरों में समा जाता है,
कोई गंदले पानी में कमल बन जाता है !
सुबह की किरणों के संग-
कोई गीत गाता है
कोई रोता है
कोई सूरज से होड़ लगाता है !
बन्धु,
अलग-अलग कैनवास हैं,
भावों के रंग हैं,
आकाश किसके हाथ होगा-
कौन जानता है !

02 दिसंबर, 2008

नए मंज़र की आहटें !


ज़िन्दगी कभी सरल नहीं होती
उसे बनाना पड़ता है
बेरंग लम्हों को
उम्मीद के रंगों से
ज़बरदस्ती भरना पड़ता है !
जिन वारदातों को
हम इन्तहां समझते हैं
- वे नए मंज़र की आहटें होती हैं ......................
निर्माण से पूर्व बहुत कुछ सहना होता है !
ज़िन्दगी अगर आसान ही हो जाए
तो जीने का मज़ा ख़त्म हो जाए !
माथे पर पसीने की बूंदें ना उभरीं
तो नींद का मज़ा क्या !
रोटी,नमक में स्वाद नहीं पाया
तो क्या पाया ?
......
ज़िन्दगी रेगिस्तान में ही रूप लेती है,
पैरों के छाले ही
मंजिलों के द्वार खोलते हैं !

23 नवंबर, 2008

मन के रास्ते और ईश्वर !


मैं मन हूँ,
सिर्फ़ मन !
शरीर की परिधि से
बहुत अलग,बहुत ऊपर........
आम बातें मैं कर लेती हूँ कभी,
पर मन की राहों में सफर करना
मेरा सुकून है !
मन के रास्ते गीले होते हैं,
गिरने का डर होता है ,
तो अक्सर लोग
सूखे,बेमानी रास्तों में उलझ जाते हैं........
आंसुओं की भाषा में गिरना
उन्हें मुनासिब नहीं लगता !
उनकी जुबान में
ईश्वर तक बेमानी शक्ल ले लेता है,
सात्विक चेहरे से अलग
हीरे,मोतियों में जड़ हो जाता है !
हतप्रभ ईश्वर-
उस पिंजड़े को छोड़ जाता है
और मेरे
मुझ जैसों के संग-
भीगे रास्तों पर।
आम परिवेश में चलता है
....... ईश्वर अपनी करुणा के आंसू
इन्हीं रास्तों पर बहाता है !!!!!!!

17 अक्टूबर, 2008

प्रभु तुम और मैं !


कस्तूरी मृग बन मैंने ज़िन्दगी गुजारी
प्रभु तुम तो मेरे अन्दर ही सुवासित रहे !
मैं आरती की थाल लिए
व्यर्थ खड़ी रही
प्रभु तुम तो मेरे सुकून से आह्लादित रहे !
मेरे दुःख के क्षणों में
तुमने सारी दुनिया का भोग अस्वीकार किया,
तुम निराहार मेरी राह बनाने में लगे रहे
और मैं !
भ्रम पालती रही कि -
आख़िर मैंने राह बना ली !
मैं दौड़ लगाती रही,
दीये जलाती रही
- तुम मेरे पैरों की गति में,
बाती बनाती उँगलियों में स्थित रहे !
जब-जब अँधेरा छाया
प्रभु तुम मेरी आंखों में
आस-विश्वास बनकर ढल गए
और नई सुबह की प्रत्याशा लिए
गहरी वेदना में भी
मैं सो गई -
प्रभु लोरी बनकर तुम झंकृत होते रहे !

.............
प्रभु तुमने सुदामा की तरह मुझे अनुग्रहित किया
मुझे मेरे कस्तूरी मन की पहचान दे दी !

12 अक्टूबर, 2008

वक्त है ?


वक्त हो तो बैठो
दिल की बात करूँ....
कुछ नमी हो आंखों में
तो दिल की बात करूँ...
तुम क्या जानो,
अरसा बीता,
दिल की कोई बात नहीं की,
कहाँ से टूटा
कितना टूटा-
किसी को ना बतला पाई,
रिश्तों के संकुचित जाल में
दिल की धड़कनें गुम हो गईं !
पैसों की लम्बी रेस में
सारे चेहरे बदल गए हैं
दिल की कोई जगह नहीं है
एक बेमानी चीज है ये !
पर मैंने हार नहीं मानी है
दिल की खोज अब भी जारी है....
वक्त है गर तो बैठो पास
सुनो धड़कनें दिल की
इसमें धुन है बचपन की
जो थामता है -रिश्तों का दामन
फिर.............
वक्त हो तो बैठो,
दिल की कोई बात करूँ............

06 अक्टूबर, 2008

मन-से-मन तक !!!


शरीर की मानसिकता
मन तक कहाँ जाती है ?
मन के चरागाहों में घूमते
तुम रो पडोगे,
जब साथ चलनेवाला
शरीर से ऊपर नहीं उठ पाता !
तुम मन से गंगा को धरती पर लाओ,
कोई उपलब्धि नहीं............
पर,सिर्फ़ शरीर की परिधि में -
नाम,शोहरत....सब संभव है !
साहित्य कितनों को लुभाता है भला.....?
पर जिन किताबों में
अश्लीलता बेची जाती है,
वह क्षणांश में
हाथों-हाथ बिक जाती है !
दोष लिखनेवालों का कहाँ होता है,
वे तो मानसिकता को खुराक देते हैं !
शरीर मन का दूसरा पहलु है
इसे कम लोग जानते हैं
और यही जानकारी उन्हें रुलाती है !
मैं अक्सर उन आंसुओं को
करीने से सजाती हूँ
और मन-से-मन की उड़ान भरती हूँ !

27 सितंबर, 2008

मोह !!!!!!!


खट खट खट खट.........
मोह दरवाज़े पर
दस्तक देता रहता है !
कान बंद कर लूँ
फिर भी ये दस्तकें
सुनाई देती हैं -
और आंखों में
कागज़ की नाव बनकर तैरती हैं !
आँधी,तूफ़ान,घनघोर बारिश में लगा,
अब ये नाव डूब चली,
पर आँधी थमते
दस्तकें सुनाई देती हैं........
मैं आखिरी कमरे में चली जाती हूँ
पर मोह की दस्तकों से
मुक्त नहीं हो पाती.......
बैठ जाती हूँ हार के
....... प्रभु तुम ही कहते हो,
तुम्हारा क्या गया ?
तुम क्या लाये थे ?
तो - यह मोह,
क्यूँ मेरे साथ चलता है !

21 सितंबर, 2008

शून्य !


एक विस्फोट फिर !
आह !
क्या हो गया है !
कौन है !
सरकार क्या कर रही है !.....................
दुःख और दहशतनुमा सन्नाटे में
फर्क होता है !
सन्नाटे की भाषा नहीं होती
भाषाहीन - एक शून्य !
..........
अखबार के पन्नों पर
अपना खून नहीं होता
तो, स्थिति उतनी भयावह नहीं लगती,
सरगर्मी भरी बातचीत हो जाती है !
अपना खून !
विस्फोट मस्तिष्क में होता है
फिर-
निस्तेज आँखें !
मौन दर्द !
शब्दहीन शून्य रह जाता है !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

14 सितंबर, 2008

माँ माँ ...................


माँ,माँ
डर लगता है....................
माँ ने हाथ का घेरा बनाया
सीने से लगा लिया !
माँ,माँ,
बुरे सपने आते हैं...........
माँ ने तकिये के नीचे
हनुमान चालीसा रखा,
माथे पर ॐ लिखा
या फिर तकिये के नीचे
कैंची (लोहा)रख दी !
माँ,माँ ,
मेरी तबीयत ठीक नहीं.....................
माँ ने मिर्चा लेकर
नज़र उतारी !
.............................
अब हम बड़े हो गए हैं !
अब माँ को डर लगता है,
बुरे सपने आते हैं,
तबीयत ख़राब रहती है.......
बड़ी उकताहट होती है !
क्या माँ ,
दिमाग सठिया गया है !
झूठमूठ की घबराहट !
इस उम्र में ऐसा होता है !
....................
माँ बेचारगी से मुस्कुराती है,
ख़ुद अपने तकिये के नीचे हनुमान चालीसा रख लेती है
और करवट बदलकर
सोने का भ्रम देती
टुकुर-टुकुर समय को ताकती है..........................!!!

12 सितंबर, 2008

मानो तो.....


कविता तो पढ़ते हो ,
शब्दों की सुन्दरता का आकलन करते हो ,
'वाह' , 'वाह' भी करते हो...........
कभी लिखनेवाले के मर्म को जीया है?
समझा है उस घुटन को-
जो बेचैन से
किसी छोर से अकुलाते
अपनी मनःस्थिति को उजागर करते हैं !
.......
कभी जीकर देखो,
वहां तक-
कुछ ही हद तक पहुंचकर देखो........
तब कलम लो
और देखो,
वह क्या कहती है !
कवि की घुटन,
आंसू से शब्द,
अव्यवस्थित खांचे
गंगा की तरह होते हैं -
मानो तो पावन गंगा,
ना मानो तो -
बस एक नदी !

05 सितंबर, 2008

मेरी,तेरी,उसकी बात.........


(१)
मेरी तपस्या की अवधि लम्बी रही,
रहा घनघोर अँधेरा ,
सुबह - नए प्रश्न की शक्ल लिए
खड़ी रही..........
वो तो चाँद से दोस्ती रही
इसलिए सितारों का साथ मिला -
तपस्या पूरी हुई,
सितारे आँगन में उतर आए !

(२)
तुमने मुझे 'अच्छी'कहा
तो घटाएं मेरे पास आकर बैठ गयीं,
मेरी सिसकियों को अपने जेहन में भर लिया....
सारी रात घटाएं रोती रहीं,
लोग कहते हैं -
' अच्छी बारिश हुई '

(३)
घर तो यहाँ बहुत मिले
पर,
हर कमरे में कोई रोता है !
मेरे पास कोई कहानी नहीं,
कोई गीत नहीं,
मीठी गोली नहीं,
चाभीवाले सपने नहीं....
कैसे चुप कराऊँ ?
सपने कैसे दिखाऊं? -
कोई सोता भी तो नहीं.........

(४)
समुद्र मंथन से क्या होगा !
क्या होगा अमृत पाकर?
क्या मन की दीवारें गिर जायेंगी?
क्या जीने से उकताहट नहीं होगी?
क्या अमृत तुम्हारा स्वभाव बदल देगी?
............... इन प्रश्नों का मंथन करो
संभव हो - तो,
कोई उत्तर ढूंढ लाओ !

03 सितंबर, 2008

सार की खोज....


आकाश की ऊँचाई ,
धरती का आँचल ,
चाँद की स्निग्धता ,
तारों की आँख मिचौली ,
हवाओं की शोखी ,
शाम की लालिमा ,
पक्षियों का घर लौटना.....
क्रमवार मैं इसमें जीती हूँ !
पर्वतों का अटल स्वरुप ,
इंसानों का अविस्मरनीय परिवेश -
मैं बहुत कुछ सीखती हूँ....
मैं एकलव्य की तरह
इनसे शिक्षा लेती हूँ
फिर दक्षिणा में,
अपने स्वरुप का वह हिस्सा देती हूँ,
जो उनका प्रतिविम्ब लगे !
अपने अन्दर ,
मैं - धरती,आकाश,हवा,पक्षी,शाम,पर्वत.....
और इंसानियत लेकर चलती हूँ
क्योंकि मुझे सार की खोज है.........................

29 अगस्त, 2008

जहेनसीब.....


शायराना - सी कोई दस्तक
रूह तक हुई है
ख्यालों की कलम
मन के कैनवास पर
एक खुशनुमा शायरी लिख गई है.............
तुमने दिए थे सफ़ेद कबूतर
उन्हीं का पैगाम तुम्हे खींच लाया है !
मेरे दिल के ख्वाबगाह में
गुनगुनाता है एक ग़ज़ल कोई
जो तुम्हारी शक्ल लेता है !
मेरी तूलिका ने बाँधा है इन लम्हों को
आज तुमने मुझे
शायराना ख्यालों की वसीयत दी है....
मेरी आंखों में नज्मों की
एक नदी भर दी है
मेरे हाथों में
कलम की पतवार दे दी है
जहेनसीब -
अब कोई ख्वाहिश नहीं है !!!

25 अगस्त, 2008

आह ! - कृष्ण


जन्म लेते -
काली रात,मूसलाधार बारिश...
एक टोकरी में
बेतरतीबी से कपड़े में लिपटे
बालक कृष्ण,
पिता वसुदेव संग
यमुना को पार करके गोकुल पहुंचे....
यमुना का बढ़ता जल,
-कुछ भी हो सकता था,
पर विधि ने साथ दिया
यमुना का जल शांत हुआ!
कभी पूतना,कभी शेषनाग के हाथ पड़े,
पर होनी ने उनको अद्भुत बना दिया!
कंस का निर्धारित काल बनकर
कृष्ण ने हर मुसीबतों का सामना किया!
लक्ष्य ने -
गोकुल से मथुरा भेजा
बचपन को तज कर
सर झुकाकर
काल के निर्णय को स्वीकार किया !
....
इतनी कठिनाइयों से
भगवान् ही जूझ सकते हैं
इंसानों ने कृष्ण को भगवान् बना दिया....
शक्तिशाली हाथों मे
सुदर्शन चक्र दिया
माथे पर मोर मुकुट
हाथों में बांसुरी -
कृष्ण की पसंद को स्थापित किया....
पर किसी ने नहीं सोचा,
कृष्ण को माँ यशोदा की याद आती है !
यमुना तीरे बैठकर उनकी दृष्टि
दूर-दूर तक जाती है....
मक्खन , गाय , माँ की झिडकियां,
पूरे गोकुल में उधम मचाना
......सब याद आते हैं !
एक कंस के बाद,
कई कंस आए...
इन रास्तों को पार करते-करते
कृष्ण थक चले
परमार्थ में भगवान् तो बने
पर आलोचना के शिकार हुए !
..........
कृष्णपक्ष  की घनघोर बारिश में
जब सारी दुनिया
कृष्ण को पूजती है,
उनका जन्मोत्सव मनाती है.........
कृष्ण गोकुल लौट जाना चाहते हैं !

23 अगस्त, 2008

कौन भूलेगा???????


इक्कट -दुक्कट खेलने में
घुटने दुखते हैं !
हाँ भाई ,
उम्र हुई,
पर इतनी भी नहीं
कि,रुमाल चोर नहीं खेल सकते !
अरे टीम बन जाए
तो क्रिकेट का बल्ला
आज भी घुमा सकते हैं !
पर एक पल के लिए भी
बचपन को नहीं भूलेंगे.............
बचपन का मैदान बहुत बड़ा होता है,
एक चौकलेट की जीत भी
आखों में चमक भर जाती है !
ऐसे बचपन को,
ऐसी मासूमियत को,
ऐसी छोटी-छोटी जीत को
भला कौन भूलना चाहेगा !

21 अगस्त, 2008

मुझे लगता है.....


मुझे अक्सर लगता है,
एक तितली सोयी है-
एक लंबे सपने के साथ.....
सपने में,
वह मुझे जी रही है,
यानि मैं - तितली का एक सपना हूँ!
जहाँ उसकी नींद खुली,
सपना ख़त्म....
मैं?
क्या पता,
तितली फिर मुझे कौन सा जन्म देगी
- सपने में !!!!!!

19 अगस्त, 2008

एक कप कॉफी............


बादलों की गर्जना,
कड़कती बिजली,
बारिश की तेज बौछारें,
मंद-मंद हवाएं !
हल्की ठण्ड का आलम है............
एक गर्मागर्म कॉफी हो जाए!
.........
कॉफी और मौसम तो बस बहाना है-
साथ बैठने का,
रिश्तों की खोई गर्मी को लौटाने का.........
बादल तो फिर चले जायेंगे,
बिजलियों की कड़क,
बारिश की फुहारें थम जाएँगी,
मुमकिन है कॉफी ठंडी हो जाए!
पर अगर हाथ थाम लो
तो जीवन की राहें आसान हो जाएँ
और कॉफी की खुशबू साथ हो जाए............

17 अगस्त, 2008

एक सपना,एक मुस्कान.......


मेरे पास सपने हैं,
खरीदोगे?
आसमानी , रूमानी , ख्याली.....
कीमत तो है कुछ अधिक ,
पर कोई सपने बेमानी नहीं.......
जो भी लो-हकीकत बनेंगे,
शक की गुंजाइश नहीं!
.....कीमत है - एक मुस्कान,
सच्ची मुस्कान,
झरने-सी खिलखिलाती,
हवाओं - सी गुनगुनाती,
बादलों- सी इठलाती.......
आज की भागमभाग में
इसी की ज़रूरत है !
तुम एक सपना लो-
और मेरे पास एक मुस्कान दे जाओ,
.......
इनसे ही मेरे घर का चूल्हा जलता है!

14 अगस्त, 2008

बीती कहानी बंद करो........


इति यानि बीती........हास यानि कहानी...
बीती कहानी बंद करो!
नहीं जानना -
वंदे मातरम् की लहर के बारे में,
नहीं सुनना -
'साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल....'
नहीं सुनना-
'फूलों की सेज छोड़ के दौड़े जवाहरलाल....'
नहीं जानना-
ईस्ट इंडिया कंपनी कब आई!
कब अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाया!
कहना है तो कहो-
आज कौन आतंक बनकर आया है!
और अब कौन गाँधी है?
कौन नेहरू?कौन भगत सिंह ?
वंदे मातरम् की गूंज
किनकी रगों में आज है?
अरे यहाँ तो अपने घर से
कोई किसी को देश की खातिर नहीं भेजता
( गिने-चुनों को छोड़कर )
जो भेजते हैं
उनसे कहते हैं,
'एक बेटा-क्यूँ भेज दिया?'
क्या सोच है!
........
ऐसे में किसकी राह देख रहे हैं देश के लिए?
देश?
जहाँ से विदेश जाने की होड़ है..........
एक सर शर्म से झुका है,
'हम अब तक विदेश नहीं जा पाए,'
दूसरी तरफ़ गर्वीला स्वर,
'विदेश में नौकरी लग गई है'
........
भारत - यानि अपनी माँ को
प्रायः सब भूल गए हैं
तो -
बीती कहानी बंद करो!!!!!!!!1

09 अगस्त, 2008

लहरें.........




( १ )


मैं कोई लहर नहीं
जो आकर लौट जाऊँ....
बालू का घरौंदा भी नहीं
जिसे तोड़ दिया जाए.......
मैं मन हूँ,
मैं आंगन हूँ,
जो बचपन की आंखों में पनाह लेता है
और कभी नहीं खोता .......
तुम जब तक समझ पाओ-
ये पास आ जाता है,
फिर लम्बी बातें करता है
लंबे-लंबे रास्तों की
लम्बी-लम्बी यादों की.........

( २ )
लहरें मेरे अन्दर भी उठती हैं
घरौंदे कभी उसकी गिरफ्त में आते हैं
कभी रह जाते हैं !
कभी मोती
तो कभी दर्द के नक्शे कदम मिल जाते हैं!
डुबोया तो जाने कितना कुछ
पर लहरों के संग
वापस चले आते हैं.......
रात के सन्नाटे में
लहरों का शोर!!!
थपकियाँ देती हूँ खुद को ,
पर नींद-लहरें बहा ले जाती हैं !
...........
क्या करूँ इन लहरों का ?!

04 अगस्त, 2008

एक अदद आया.......


वह दिन दूर नहीं,
जब पढ़ी-लिखी लडकियां
'आया' की जगह के लिए अप्लाई करेंगी !
बहुत सारी कंपनियों की तुलना में
एक आया
अधिक कमाने लगी है,
क्योंकि -
उसकी मांग और ज़रूरत बढ़ गई है........
बोनस पॉइंट -
paid leave ,
रहने की सुविधा ,
मेडिकल सुविधा ,
फ्री प्रसाधन सामग्री ,
कपड़ा हर त्यौहार पर !
..........
अचानक गायब होने पर
ज़ोर की डांट भी नहीं,

कभी भी खतरे की घंटी बजा सकती है ,

पैरों तले ज़मीन हटा सकती है !

.......

इतनी सारी सुविधाओं के साथ ,

..... आकर्षक आय ,

कभी भी बढ़वाने का मौका ,

एक्स्ट्रा वर्क - एक्स्ट्रा मनी

और...........

खुशामद की चाशनी !


02 अगस्त, 2008

अपने.....!


अपमान की आग जब लगी

तो,

हाथ सेंकनेवाले अपने ही थे !

मासूमियत का मुखौटा पहन

सिहरते हुए,

घी डालते गए !

बढती लपटों ने

कितनी भावनाओं को अपनी चपेट में लिया-

इससे बेखबर ,

हाथ सेंकते गए............

कुछ रहा ही नहीं कहने को,

और न कुछ अपना लगता है,

सिवाय उन बातों के -

जिसका पाठ

इन्होंने ही पढाया..............!!!!!!

31 जुलाई, 2008

बोलो ना !


मेरे पास एक इन्द्रधनुष है,

चलोगे धरती से आकाश पर?

रंग सात हैं,

जिस रंग पर बैठो

नीला आकाश मुठ्ठी में होगा,

सितारे टिमटिमाकर स्वागत करेंगे........

बोलो ना,

चलोगे आकाश पर?

इन्द्रधनुष से उतरकर

बादलों पर बैठ जाना

वे किसी ऊँचे पर्वत की चोटी पर उतार देंगे,

वहां से दुनिया को देखना.......

बोलो ना,

बादलों की पालकी पर चलना है?

बोलो ना,
मेरे साथ खेलना है????????

29 जुलाई, 2008

पास से गुजरते कुछ ख्याल....


( १ )
वे तो अपने होते हैं
जिनकी आंखों में
दर्द पनाह लेता है
और सीने में
जब्त होती हैं सिसकियाँ.......
एक-एक स्पर्श
एक नई जिंदगी,
नई उम्मीद का सबब बन जाता है........

( २ )
जिनके पाँव के नीचे से
मैंने कांटे चुने,
या खुदा !
वे कहते हैं-
मुझे कांटे बिछाने की आदत है !
क्या सोचूं?
वे मेरा अस्तित्व मिटाना चाहते हैं
या ख़ुद के सामर्थ्य का
झंडा लहराना चाहते हैं !

( ३ )
शिकायत उनसे होती है
जो शिकायत का मान रखते हैं
यूँ ही सबों से शिकायत........
शिकायत का भी अपमान होता है !

( ४ )
जिसका दर्द गहरा होता है
उसकी सहनशीलता भी गहरी होती है
सतही दर्द में
अविरल आंसू बहते हैं
चेहरा गमगीन होता है !
दर्द के बीच से राह निकालनेवाले
अक्सर अन्दर सुलगते हैं
आंसू उनके सूख जाते हैं
क्योंकि वे जानते हैं-
" दर्द रोने से कम नहीं होगा ......."

27 जुलाई, 2008

स्वयं का आह्वान...........


हम किसे आवाज़ देते हैं?
और क्यूँ?
क्या हम में वो दम नहीं,
जो हवाओं के रुख बदल डाले,
सरफरोशी के जज्बातों को नए आयाम दे जाए,
जो -अन्याय की बढती आंधी को मिटा सके...........
अपने हौसले, अपने जज्बे को बाहर लाओ,
भगत सिंह,सुखदेव कहीं और नहीं
तुम सब के दिलों में हैं,
उन्हें बाहर लाओ...........
बम विस्फोट कोई गुफ्तगू नहीं,
दुश्मनों की सोची-समझी चाल है,
उसे निरस्त करो,
ख़ुद का आह्वान करो,
ख़ुद को पहचानो,
भारत की रक्षा करो !...........

24 जुलाई, 2008

उल्टा-पुल्टा


चाँद तो तुम्हारे शहर भी जाता है,

बातें भी होती होंगी-

कभी बताया चाँद ने

कि,

मैं चकोर हो गई हूँ,

और चाँद में तुम्हे तलाशती हूँ?

....

इस तलाश में रात गुजर जाती है

फिर सारा दिन

रात के इंतज़ार में.....

घर में कहते हैं सब,

मैं 'बावली' हो गई हूँ!

कैसे समझाऊं उन्हें

चकोर बनना कितना कठिन है !

कितना कठिन है,

चाँद को तकते रात गुजारना.....

अब तो -

चकोर भी हतप्रभ है !

चाँद की जगह मुझे निहारता है !

और मेरे इंतज़ार में

चकोरी को भूल गया है.....

क्या कहूँ?

सबकुछ उल्टा-पुल्टा हो गया है !!!!!!!!


22 जुलाई, 2008

तुम अपनी लगती हो.....


क्यूँ तुम अच्छी लगती हो?

क्या इसलिए कि,

तुम्हारे पास शब्दों की थाती है?

या इसलिए कि,

मेरी तरह तुम भी सपने बेचती हो?

या,

तुम्हारे पास भी जादुई परियाँ हैं!

......

तुम मेरी हमउम्र नहीं,

पर जज्बातों की उम्र एक-सी है....

नाम से अनजान हूँ,

फिर भी एक पहचान है...

बताना तो,

ये शब्दों की पिटारी तुम्हे कैसे मिली?

मैंने जो छड़ी अपने सिरहाने राखी थी

तुम्हे कैसे मिली?

क्या कोई परी

तुम्हारे आँगन भी उतरी थी?

या,

दर्द की एक लम्बी सड़क

तुम्हारे हिस्से भी आई थी?

जो भी हो,

तुम अपनी लगती हो,

कोई मुलाकात नहीं,

पर हमसफ़र लगती हो...............

17 जुलाई, 2008

आओ तुम्हे चाँद पे ले जाएँ...........


रात रोज आती है,

हर रात नए सपनों की होती है,

या - किसी सपने की अगली कड़ी.....

मैं तो सपने बनाती हूँ

लेती हूँ एक नदी,एक नाव, और एक चांदनी........

...नाव चलाती हूँ गीतों की लय पर,

गीत की धुन पर सितारे चमकते हैं,

परियां मेरी नाव में रात गुजारती हैं...

पेडों की शाखों पर बने घोंसलों से

नन्ही चिडिया देखती है,

कोई व्यवधान नहीं होता,

जब रात का जादू चलता है.....

ब्रह्म-मुहूर्त में जब सूरज

रश्मि रथ पर आता है-

मैं ये सारे सपने अपने

जादुई पोटली में रखती हूँ...

परियां आकर मेरे अन्दर
छुपके बैठ जाती हैं कहीं

उनके पंखों की उर्जा लेकर

मैं सारे दिन उड़ती हूँ,

जब भी कोई ठिठकता है,

मैं मासूम बन जाती हूँ.......

अपनी इस सपनों की दुनिया में मैं अक्सर

नन्हे बच्चों को बुलाती हूँ,

उनकी चमकती आंखों में

जीवन के मतलब पाती हूँ!

गर है आंखों में वो बचपन

तो आओ तुम्हे चाँद पे ले जायें

एक नदी,एक नाव,एक चाँदनी -

तुम्हारे नाम कर जायें..........................

12 जुलाई, 2008

मैं........

मैं ओस की एक बूंद,
अचानक बही एक शीतल हवा,
बांसुरी की एक मीठी तान,
घनघोर अंधेरे में जुगनू,
रेगिस्तान में दो बूंद पानी......
मुझे भूल जाना आसान नही है!!!

09 जुलाई, 2008

सच्ची जीत........


ये सच है,
मैं पैसे नहीं जमा कर पायी!
ये भी सच है,
मैं रिश्तों की पोटली नहीं बाँध सकी!
मेरी बेटी ने पूछा एक दिन-"क्या मिला तुम्हे?"
मैंने सहज ढंग से कहा,
"वही-जो कर्ण को मिला....
उसने पूछा - हार?
मैंने कहा -नहीं,
वही, जो पार्थ की जीत के बाद भी
कर्ण को ही मिला.......
तुम सब ख़ुद
नाम लेते हो कर्ण का
तो फिर प्रश्न कैसा?"
वह मुस्कुराई,
उसकी आंखों में
मुझे मेरी जीत नज़र आई।
दुनिया कहती है,
"जो जीता वही सिकंदर...."
पर सत्य था कुरुक्षेत्र!
जहाँ सारथी बने कृष्ण ने
कर्ण की पहुँच से
दूर भगाया अर्जुन को,
लिया सहारा छल का,
पर मनाने न दिया जीत का जश्न..
सम्मान दिया उस तेज को..............
तो,
यही जीत होती है!

05 जुलाई, 2008

कहाँ आ गए?????????


अमाँ किस वतन के हो?

किस समाज का ज़िक्र करते हो?

जहाँ समानता के नाम पर,

फैशन की अंधी दौड़ में,

बेटियाँ नग्नता की सीमा पार कर गयीं...

पुरूष की बराबरी में,

औंधे मुंह गिरी पड़ी हैं!

शर्म तो बुजुर्गों को आने लगी है,

और चन्द उन युवाओं को -

जिनके पास मान्यताएं बची हैं.......

कौन बहन है,कौन पत्नी,

कौन प्रेयसी,कौन बहू !

वाकई समानता का परचम लहरा रहा है!

समानता की आड़ में

सबकुछ सरेआम हो गया है!

झुकी पलकों का कोई अर्थ नहीं रहा,

चेहरे की लालिमा बनावटी हो गई!

या खुदा!

ये कहाँ आ गए हम?!?

02 जुलाई, 2008

अतीत का दर्द.........




जब दर्द के शीशे गहरे चुभते हैं,
तो हर उपचार के बाद,
उसके निशान,
प्राकृतिक,शारीरिक चुभन रह जाते हैं!
अति सरल है,
'भूल जाने का परामर्श' देना!
इमारत जिंदगी की अतीत के खंडहर पर होती है...........
अतीत भूत बनकर इन कमरों में घुमा करते हैं,
नींद में भी एक दहशत ताउम्र होती है!
पागलपन कहो या-
मनोविज्ञान का सहारा लो.....
बातें ख़त्म नहीं होतीं,
खुदाई यादों की चलती ही रहती है,
कभी खुशी,कभी दुर्गन्ध बन
साथ ही रहती है!
गूंजते सन्नाटों की भाषा वही जानते हैं,
जो सन्नाटों से गुजरते हैं ,
अतीत का दर्द - दर्द का मारा ही जान पाता है!

30 जून, 2008

रिश्ते......


मैं सोचा करती थी,
रिश्ते साथ चलते हैं!
रास्ते एक होते हैं!
हार नहीं मिलती!पर.....
वक्त ने बताया,
वक्त का एक खेल हैं- ये रिश्ते!
बस एक puzzle है...
और उसके लिए पास में होता है-
sand टाइमर!
गर जोड़ लिया तुमने रंगों का ताना-बाना,
तो ठीक-
नहीं तो अनसुलझे प्रश्न रह जाते हैं-
सारे रंग बेरंग हो जाते हैं,
अब जाना-
ये रिश्ते हमें बहुत रुलाते हैं!

28 जून, 2008

पैगाम ......



विश्वास की ज़मीन

रंगोली से सजी है,

विजय ध्वज लहराता सूरज

आँगन उतरा है,

पक्षियों के खोए कलरव

वाद्य-यंत्रों से गूंज उठे हैं,

आंखों से खुशियों की बरसात हुई है,

ह्रदय आशीर्वचनों से मुखर हुआ है,

संगम के तीरे आज मेला लगा है.......

मेरे सपने साकार हुए,

मेरे अपने निहाल हुए,

मेरी जिंदगी में खुशियों के फूल खिले हैं,

मेघराज की गर्जना नगाडों - सी हुई है,

बूंदें नई जिंदगी के पैगाम लायी है...........

23 जून, 2008

हकीकत की बुनियाद!




रात रोज़ आती है


कभी हल्के,


कभी गहरे,


कभी तूफ़ान-सी!


सपने भी तैरते हैं बंद आंखों में-


कभी मीठे, कभी नमकीन, कभी बेबस-से!


पर सपने जैसे भी हों,


मुझे अच्छे लगते हैं


मैं उनकी बारीकियों पर गौर करती हूँ-


हर सपने का एक अर्थ होता है,


मैं उन्हें याद रखती हूँ........


तो जब तक जिंदा हूँ,


रात है, नींद है, सपने हैं.........


यानि हकीकत की बुनियाद है!

20 जून, 2008

मृत्यु से पहले....


कैसे कोई झूठ बोलता है?
झूठ के धरातल पर,
ईश्वर के आगे सर झुकाता है!
क्या ईश्वर की शक्ति का डर नही?
या ईश्वर का भी सम्मान नही?
क्या कान पकड़ लेने से,
भगवान् हिंसक लोगों की हिंसा को
नज़रंदाज़ कर देते हैं?
................
पैसे की जीत कभी नहीं होती,
हो ही नहीं सकती.......
पैसे तो गली-गली बरसते हैं,
सुकून तो अमृत बूंद की तरह,
शरद पूर्णिमा को ही टपकता है.........
मैंने उसे ही इकठ्ठा किया है,
आश्चर्य!
उसने पैसे की आड़ में मेरा सुकून लेना चाहा है....
मेरे विचारों से कोई मुझे अलग कर दे,
ये मुमकिन नहीं!
विश्वास ने ही अब तक मुझे चलाया है,
वरना पैसों की कमी न थी.....
खुद्दारी का सुकून ले,
मैंने लक्ष्य पूरा किया ,
फेंके पैसों से मैंने अपने 'स्व' को
नहीं गंवाया-
तुम लाख सर पटक लो,
ईश्वर माफ़ नहीं करेगा,
मृत्यु से पहले एक-एक हिसाब करेगा............

17 जून, 2008

दो सच...


(1) शब्दों का मर्म
शब्दों का मर्म जो समझते हैं,
वे मर्महीन कैसे हो सकते?
रिश्तों से टूटकर शब्दों के साथ जीना आसान नहीं होता,
इसे समझना आम लोगों के बस में नहीं होता......
एहसास तो सारी रात जागते हैं,
नींद से कोसों दूर आँखें

जागती आँखों के मर्म से अनभिज्ञ नहीं रहतीं.........
अनछुए एहसासों से अलग नहीं रहती।

(2) जिंदगी एक खुशनुमा पल................
जिंदगी एक खुशनुमा पल है,
निर्भर है तुम पर-इस पल को कैसे संवारते हो!
न वक़्त ठहरता है,
न लोग..........
पर गर तुमने वक़्त की नाजुकता को जान लिया,
तो ज़िन्दगी मेहमान बन जाती है,
मेहमानावाजी भी तुम पर-
चाहो तो कांटे बिखेर दो,
या रास्तों को फूलों से सजा दो,
जो भी करना है,जल्दी करो,
कभी भी हाथ आया वक़्त नाउम्मीदी मे ढल सकता है,
उसे गंवाकर किस्मत को जिम्मेदार न कहना.............

16 जून, 2008

नई रचना........


सारथी आज भी श्रीकृष्ण रहे,
पर महाभारत के दिग्गज यहाँ नहीं थे-
थी एक पत्थर हो गई माँ और उसके मकसद,
विरोध में संस्कारहीन घेरे थे...........
कृष्ण ने गीता का ही सार दिया,
और दुर्गा का रूप दिया,
भीष्म पितामह कोई नहीं था,
ना गुरु द्रोणाचार्य थे कहीं.........
दुर्योधन की सेना थी,
धृतराष्ट्र सेना नायक ,
और साथ मे दुःशासन !
एक नहीं , दो नहीं ,पूरे २४ साल,
चिर-हरण हुआ मान का,
पर श्रीकृष्ण ने साथ न छोड़ा..........
जब-जब दुनिया रही इस मद में ,कि-
पत्थर माँ हार गई , -
तब - तब ईश्वर का घात हुआ ,
और माँ को कोई जीत मिली....
अब जाकर है ख़त्म हुआ,
२४ वर्षों का महाभारत ,
और माँ ने है ख़ुद लिखा,
अपने जीवन का रामायण...........

07 जून, 2008

चमका सितारा...........

आज ऋतुराज बसंत मेरे आँगन उतरा है,
जेठ की दोपहरी सौंधी खुशबू से भर गई है...
मेघों का समूह सावन का संदेश ले आया है,
ख्वाबों की धरती पर हकीकत की जड़ें मजबूत हुई हैं॥
टप-टप गिरती बूँदें
सारी फिजाओं में मचल रही हैं।
यह अजूबा मेरी ज़िंदगी का है
मेरा चाँद आकाश के चाँद को छू रहा है,
मन्दिर में शंखनाद है,
देवता स्वयं आशिर्वचनो का जाप कर रहे हैं,
हाँ आज काँधे पर सितारा चमका है............

22 मई, 2008

अधिकार........


ओ रूपसी,
आज तुमने अपनी पर्ण-कुटी के द्वार नहीं खोले,
बस भीतर ही खिलखिलाती रही,
चिडियों का समूह दानों की प्रतीक्षा में है,
जरा खोलो तो द्वार,
मैं भी देखूं तुम्हारा आरक्त चेहरा,
बिखरे सघन बाल,
फ़ैल गए टीकेवाला चेहरा,
जानूँ तो सही-
किसे ये अधिकार तुमने दे दिया है...........

20 मई, 2008

जीत.......




पौधे जब लगाये थे
तो धूप पानी कुछ नहीं था,
बस था तूफ़ान का अनवरत सिलसिला !
बड़ी मुश्किलों से देवदार,गुलाब
और रजनीगंधा लगाए,
आंखों के जल से सींचा था,
ममता की बाड़ लगाई थी
और रक्षा मंत्र का पहरा था!
सबने कहा था-
"आसान नहीं पौधों को बचाना,"
जो जीवन का उद्देश्य बना !
जाने कितने कांटे चुभे पाँव में,
और पौधे भी अकुलाए,
टांग दी तब ये झूठी तख्ती-
"कुत्तों से सावधान"....
डर से फिर आतंक रुक गया,
एक-एक झूठ की आड़ में मैंने
सौ सत्य का वरदान लिया.......
आज खड़ा है देवदार,
देखो वह उन्नत भाल लिए,
और मन है ओत-प्रोत
फूलों की सुगंध लिए-
आज फिर सत्य की जीत हुई,
आया बसंत आँगन में,
चहुँ ओर है सूर्य की लाली,
हँसता चाँद गगन में...
जीवन में खुशियाँ चहक उठीं हैं,
कोई तिनका तोड़ लूँ या बढ़कर
काजल का गहरा टीका लगाऊँ
मेरे आँचल में खुशिया सिमट चली है..........


19 मई, 2008

आहट.........




कोई आहट रुकी है जानी-पहचानी
मेरे मन की सांकलें सिहर उठी हैं..
मैं तो ध्यानावस्थित थी,
ये कौन आया बरसों बाद?
मुझे याद दिलाया-मैं जिंदा हूँ.......!
किसने मेरे खाली कमरे में घुँघरू बिछा डाले,
जो पुरवा की तरह बज उठे हैं!
क्यों मुझे राधा याद आ रही?
उधो की तरह मैं गोपिकाओं में क्यों लीन हो उठी?
ये बांसुरी की तान कहाँ से आई है?
यमुना के तीरे ये क्या माज़रा है
क्यों ब्रज में होली की धूम मची है?
क्या कृष्ण ने फिर अवतार लिया है???


15 मई, 2008

कुछ है.......


काले मेघों का आना,
टप-टप बूंदों का बरसना,
सोंधे ख्याल अंगडाई लेने लगे हैं......
जाने क्यूँ?
भींग जाने का दिल करता है.......
दौड़ता है मन पर्वतों की चोटियों पे,
दिल की धड़कनें पाजेब-सी बजती है......
मेरे अन्दर मोरनी थिरक उठी है,
होठों पे कोई गीत फुहारों -से मचलते हैं......
मेरी यादों की गगरी छलक उठी है,
सोंधी खुशबू हवाओं में दहक रही है.......
मेरे मन में घटाएँ बहक रही हैं,
"कुछ है"-सारी धरती फिसल रही है.........

02 मई, 2008

कल्पना.....

मैं सोच रही हूँ.......
कुछ लिखना चाहती हूँ........
मेरे शब्द गुम हो गए हैं,
मेरे एहसासों का अपहरण हो गया है,
फिरौती में मेरी कल्पनाएं माँगी जा रही हैं,
मेरे पास यही तो बहुमूल्य संपत्ति है,
हीरों -सी चमक-दमक,
जौहरी ने पहचान लिया,
और एहसासों को बंद कर डाला....
कहता है,कल्पनाएँ दे दो,
वरना एहसासों को मिटा दूँगा!
मैं सोचती रही,
सोचती रही.......
"मूर्ख जौहरी,मेरी कल्पनाएँ जब साथ हैं,
तू एहसासों को भला कैसे मिटा सकेगा,
कल्पनाओं की वसीयत जिन्हें दी है,
उनके साथ मेरे एहसास चलते रहेंगे......."
मैंने फिर शब्द ढूंढ लिए हैं,
और विश्वास भरा एहसास लिए,
सोच रही हूँ,
कल्पनाओं की दिशा में तैर रही हूँ........

29 अप्रैल, 2008

एक सपना...


मन,हो सके तो चलो,
एक सपना ले आयें गाँव से-
मिट्टी का चूल्हा,मिट्टी का आँगन,
धान की बालियाँ,पेड़ की छाँव,
कुंए का पानी,चिड़ियों का झुंड,
पूर्वा के झोंके,
टूटी-सी खाट,
मोटी-मोटी रोटियाँ,
फागुन के गीत,
पायल की रुनझुन,
चूड़ियों की खनक,
ढोलक की थाप
और तेरा साथ...................

27 अप्रैल, 2008

चंद बिखरी भावनाएं.........


( १)
हारकर चलना,
मज़बूरी नहीं,
ताकत होती है,
कोई माने या न माने
दुनिया उसी की होती है............
(२)
जब थी थकान,
चाह थी एक प्याले की,
भावनाओं का आदान-प्रदान था,
आंखों में कशिश थी,
स्पर्श में गर्माहट थी,
पलक झपके
भावनाओं के शब्दकोष खाली हुए,
व्यवहारिकता की बातें चलीं-
सारे संबंध ठंडे हुए.......
(३)
क्षणांश को ज़िंदगी मिली,
क्षणांश में जाना
भ्रम था,
क्षणांश में जाना यायावर था,
क्षणांश में समझा
वृक्ष बनाया
क्षणांश में
वृक्ष फर्निचर में बदला
क्षणांश में-
यायावर जीत गया.........
(४)
कहानी,कविता की सार्थकता वहीं है,
जहाँ दिल है,
पैसे की मेज़ पर
यह कूड़े का ढेर है,
आधुनिकता के आडम्बर में,
सजाते हैं किताबें करीने से,
पर एक शब्द का मर्म समझना
-मुश्किल है!
(५)
नहीं जानते जो तारीखों को,
तोतली भाषा को,
पहली मुस्कान,निर्झर हँसी को,
वे क्या जानेंगे प्यार को?!
उन्हें तो प्यारी है,
सिक्कों की खनक,
जहाँ नन्हें जूते नहीं होते
होती हैं अपनी कमजोरियाँ,
प्रयोजन के पीछे
तथाकथित मजबूरियाँ...........

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...