मैंने अपना कमरा बुहार लिया है...
जन्म से लेकर अब तक
बहुत कुछ बटोर लिया था
खुद के लिए ही कोई जगह नहीं बची थी !
इसे संवारो,
उसे सहेजो
करते करते भूल गई थी खुद को
यूँ कहो नज़रअंदाज कर दिया था
आज आईने में खुद को देखा
आँखों के नीचे स्याह उदासी
रेगिस्तान सा चेहरा
डूबता मन
...
तब ख्याल आया
किसी ने मुझे संवारा नहीं
सहेजा नहीं
पलभर में मोह भंग हुआ
वर्षों से बटोरती रही थी जो कुछ
उसे बाहर कर दिया ...
...
माना यह मेरे जीने का ढंग नहीं
पर एकतरफा चलकर
मैं जी भी तो नहीं रही थी
दर्द है
पर कम है
काम भी कम
और सोच भी कम !
सोचती हूँ - एक नींद ले लूँ
सोने को तरस गई हूँ
कोई सपना ऐसा देखूं
जिसे हकीकत बनाने की नई उम्मीद जगे
नई उम्मीद फिर से जीने की !!!